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(१४०) गुणस्थानक्रमारोह युक्त निर्मल प्रथम शुक्ल ध्यान तीन योगयुक्त साधुको होता है ।
व्याख्या-मन वचन कायाके योगवाले महामुनिराजको शुक्ल ध्यानका प्रथम पाया होता है । वह प्रथम पाया सवितर्क, सविचार और सपृथक्त्व, इन तीन भेदवाला होता है।
अब इन तीनों भेदोंका ही शास्त्रकार स्वरूप बताते हैंश्रुतचिन्ता वितर्कः स्यात्, विचारः संक्रमो मतः। पृथक्त्वं स्यादनेकत्वं, भवत्येतत्रयात्मकम् ।।६१॥ ___ श्लोकार्थ-श्रुत चिन्ताको वितर्क, संक्रमको विचार और अनेकत्वको पृथक्त्व कहते हैं, इन तीन भेदात्मक ही शुक्ल ध्यानका प्रथम पाया होता है।
व्याख्या-श्रुत ज्ञानका चिन्तवन रूप वितर्क नामा शुक्लध्यानके प्रथम पायेका पहला भेद समझना, तथा अर्थ और शद्धादिके योगान्तरोंमें जो संक्रमण होता है उसे विचार नामा दूसरा भेद जानना और द्रव्य गुण पर्यायादि द्वारा जो अन्यत्व है उसे पृथक्त्व कहते हैं। __ अब शास्त्रकार क्रमसे इन तीनोंका स्पष्टार्थ कहते हैंस्वशुद्धात्मानुभूतात्म-भावश्रुतावलम्बनात् । अन्तर्जल्पो वितर्कः स्याद्, यस्मिं स्तत्सवितर्कजम्॥ __श्लोकार्थ-स्वकीय शुद्धात्म रूप तत्त्वके अनुभव श्रुतावलंबनसे जिस ध्यानमें अन्तजेल्प रूप वितर्क होता है, उसे सवितर्कजन्य शुक्ल ध्यान कहते हैं।
व्याख्या-स्वकीय निर्मल परमात्म रूप परमतत्त्वका अनु. भवमय आगमका अनलंबन जो अन्तरंगको प्राप्त हुआ है, उस