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(१४२) गुणस्थानक्रमारोह.
जिस प्रकार सुवर्ण द्रव्यमें पीतता (पीलापन) धर्म स्वाभाविक ही है, उसी प्रकार सर्व द्रव्योंके अन्दर कोई न कोई स्वाभाविक ही सहचारी धर्म होता है, उसे ही गुण कहते हैं। उसीप्रकार सुवर्ण द्रव्यके कुंडल, कडे, मुद्रिका, मुकुटादि आभूषण बन कर जुदे जुदे रूपको धारण करते हैं, ये भिन्न रूप सुवर्ण द्रव्यके पर्याय कहे जाते हैं। इसी तरह आत्म द्रव्यके अन्दर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, ये गुण हैं और उपाधी भेदसे नारक, तिर्यच, मनुष्य, देवता, अथवा मनुष्य तथा तिर्यंचोंमें बाल तरुण और वृद्धादिक अवस्थाओंको जो आत्मा धारण करती है उन आत्माके रूपान्तरोंको या अवस्था भेदोंको ही आत्म द्रव्यके पर्याय कहते हैं । इन पूर्वोक्त द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें वितर्क नामा ध्यानका संक्रमण होनेसे उसे अन्यत्व सिद्ध होता है, अतएव उसे सपृथक्त्व कहते हैं । ___ अब प्रथम शुक्ल ध्यान जन्य शुद्धि बताते हैंइति त्रयात्मकं ध्यानं, प्रथमं शुक्लमीरितं । प्रामोत्यतः परांशुद्धिं, सिद्धि श्रीसौख्यवर्णिकाम्॥६५॥
श्लोकार्थ-यह तीन भेदात्मक प्रथम शुक्ल ध्यान कहा, इससे योगी मुक्तिश्री सुखकी वर्णिका रूप परम शुद्धिको प्राप्त करता है। ___ व्याख्या-जिस शुक्ल ध्यानके प्रथम पायेके ऊपर तीन भेद पृथक् पृथक् बताये गये हैं, उस प्रथम शुक्ल ध्यानको ध्याता हुआ योगी महात्मा मोक्ष लक्ष्मीके मुखको दिखानेमें निदर्शनिकाके समान परम-उत्कृष्ट शुद्धिको प्राप्त करता है, अर्थात् पूर्वोक्त शुक्ल ध्यानका ध्याता योगी मोक्ष पदकी प्राप्तिका कारण भूत परम विशुदिको प्राप्त करता है।