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बारहवाँ गुणस्थान. (१४९) करता है, याने शुक्ल ध्यानके दूसरे पायेका ध्यान करना प्रारंभ करता है।
अब इसी दूसरे शुक्ल ध्यानको नाम सहित कथन करते हैंअपृथत्तवमविचारं, सवितर्कगुणान्वितम् । स ध्यायत्येकयोगेन, शुक्लध्यानं द्वितीयकम्।।७५॥
श्लोकार्थ-वह योगी पृथक्त्व रहित, विचार रहित और वितर्क गुण संयुक्त दूसरे शुक्ल ध्यानको एक योगसे ध्याता है । ___ व्याख्या-क्षीणमोह गुणस्थानमें रहनेवाला महात्मा पृथत्त्व, विचार रहित और वितर्क गुण सहित शुक्ल ध्यानके दूसरे पायेको एक योगसे ध्याता है। कहा भी है-एक त्रियोगभाजामाचं स्यादपरमेकयोगानाम् । तनुयोगिनां तृतीयं, निर्योगानां चतुर्थं तु ॥१॥ अथे-मन, वचन, काया, इन तीनोंके योगवाले योगीको शुक्ल ध्यानका प्रथम पाया होता है । मन वचन कायाके योगोंमेंसे किसी भी एक योगवाले योगीको शुक्ल ध्यानका दूसरा पाया होता है और केवल सूक्ष्म काय योगवाले योगी महात्माको शुक्ल ध्यानका तीसरा पाया होता है । शुक्ल ध्यानका चौथा पाया मन वचन कायाके योग रहित अयोगी महात्माको होता है।
अब अपृथत्ता ध्यानका स्पष्ट तया वर्णन करते हैंनिजात्मद्रव्यमेकं वा, पर्यायमथवा गुणम् । निश्चलं चिन्यते यत्र, तदेकत्वं विदुर्बुधाः ॥७६॥
श्लोकार्थ-निजात्म द्रव्य अथवा एक गुण या पर्यायका जिसमें निश्चल तया चिन्तवन किया जाता है उसे पण्डित पुरुष एकत्व कहते हैं।