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(१४८) गुणस्थानक्रमारोह. स्माके लिए दश गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थानको प्राप्त करनेमें पूर्वोक्त क्रमका नियम नहीं, वह दशवें गुणस्थानसे सूक्ष्म रहे हुए लोभके अंशोंको नष्ट करता हुआ सीधा बारहवें गुणस्थानमें चला जाता है । अब एक गाथा द्वारा शास्त्रकार क्षपक श्रेणीका ही समर्थन करते हैं-अणमिच्छमीस सम्म, अठ नपुंलिथिअच्छकंच । वेयंच खवेइ, कोहाईए असंजलगे ॥१॥ अर्थ-क्षपक श्रेणीवाला प्राणी मोहनीय कर्मकी अठाईस प्रकृतियोंको इस क्रमसे खपाता है, प्रथम चार अनन्तानुबन्धि कषाय, फिर मिथ्यात्व, मिश्न, सम्यक्व मोहनी, इन तीन मोहनियाको क्षय करता है, इसके बाद अप्रत्याख्यानीय प्रत्याख्यानीय आठ कषाय, फिर नपुंसक वेद नष्ट करता है, इसके बाद स्त्रीवेदको क्षय करके हास्यादि पटकका नाश करता है और फिर अपने पुरुप वेदको क्षय करके शेष रहे हुए संज्वलनके चार कषायों को नष्ट करता है। इस प्रकार मोहनीय कर्मकी २८ अठाईस प्रकृतियोंको क्रमसे क्षय करके क्षीणमोह नामा वारहवें गुणस्थानमें जाता है !
क्षपक योगी शुक्ल ध्यानके दूसरे पाचेको किस प्रकार आश्रय करता है, इस विषयमें लिखते हैंभूत्वा ऽथक्षीणमोहात्मा, वीतरागा महायतिः । पूर्ववभावसंयुक्तो, द्वितीयं शुरुमाप्रयेत् ॥७॥
श्लोकार्थ-क्षीणमोह होकर वीतराग महायति क्षपक महात्मा पूर्ववत् भावयुक्त दूसरे शुक्ल ध्यानको आश्रय करता है।
व्याख्या-क्षपक महात्मा क्षीणमोहनामा बारहवें गुणस्थानमें जाकर मोहनीय कर्मको सर्वथा क्षय करके तथा रागद्वेषसे रहित होकर विशुद्धतर भाव सहित शुक्ल ध्यानके दूसरे पायको आश्रित