________________
आठवाँ गुणस्थान,
( १४३ ) अब शास्त्रकार इसी बातको विशेष तथा कथन करते हैंयद्यपि प्रतिपात्येतदुक्तं ध्यानं प्रजायते । तथाप्यति विशुद्धत्वादूर्ध्वस्थानं समीहते ॥ ६६ ॥
श्लोकार्थ - यद्यपि पूर्वोक्त शुक्ल ध्यान प्रतिपाति होता है, तथापि अति विशुद्धता होनेसे ऊपरके गुणस्थानोंको प्राप्त करता है ।
व्याख्या - यद्यपि पूर्वोक्त शुक्ल ध्यानका प्रथम पाया पतन शील है. तथापि इससे आत्माको अति विशुद्धता प्राप्त होनेके कारण योगी महात्मा ऊपरके गुणस्थानोंमें प्रवेश करता है । इस अपूर्वकरण नामा आठवें गुणस्थान में रहा हुआ योगी महात्मा निद्रा, प्रचला, देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, शुभविहायो गति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, बैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, प्रथम संस्थान, निर्माण नाम, तीर्थंकर नाम, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात नाम, पराघात नाम और श्वासोश्वास, इस तरह निद्रा और प्रचला, ये दो दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ और तीस प्रकृतियाँ नाम कर्मकी, एवं बत्तीस कर्म प्रकृतियोंके बन्धका अभाव होनेसे छब्बीस कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है। अर्धनाराच, कीलिका और छेवटा (सेवार्त्त) ये तीन अन्तिम संहनन तथा सम्यक्त्व मोहनी, इन चार प्रकृतियों के उदयका अभाव होनेसे बहत्तर कर्म प्रकृतियोंको वेदता है और एकसौ अड़तीस कर्म प्रकृतियोंको सत्तामें रखता है ।
ra क्षपक योगी अनिवृत्ति वादर गुणस्थान में चढता हुआ जिन जिन कर्म प्रकतियोंको जहाँ जहाँ पर जिस प्रकार नष्ट करता