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(१४४) गुणस्थानक्रमारोह. है, उसका स्वरूप शास्त्रकार पाँच श्लोकों द्वारा बताते हैंअनिवृत्तिगुणस्थानं, ततः समधिगच्छति । गुणस्थानस्य तस्यैव, भागेषु नवसु कमात् ॥ ६७॥ गतिः श्वाभ्री च तैरश्वी, द्वे तयोरानुपूर्विके । साधारणत्वमुद्योतः, सूक्ष्मत्वं विकलत्रयम् ।। ६८॥ एकेन्द्रियत्वमाताप, स्त्यान गृद्धयादिकत्रयम् । स्थावरत्वमिहाद्यंशे, श्रीयन्ते पोडशेत्यमूः ॥ ६९ ॥ अष्टौ मध्यकषायाश्च, द्वितीयेऽथतृतीयके । षण्ढवतुर्यके स्त्रीत्वं, हास्यषद्कं च पञ्चमे ॥ ७० ॥ चतुर्वशेषु शेषेषु, क्रमेणैवाति शुद्धितः । पुंवेदश्च ततः क्रोधो, मानो माया च नश्यति ॥७१॥
पंचभिकुलकम् ॥ श्लोकार्थ-पूर्वोक्त इसके बाद क्षपक योगी अनिवृत्ति नामा नवम गुणस्थानमें प्रवेश करता है, तथा उस नवमें गुणस्थानके नव विभागोंमें क्रमसे नरकगति, नरकानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यगनुपूर्वी, साधारण नाम, उद्योत नाम, मुक्ष्म नाम, तीन विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय नाम, आताप नाम, स्त्याना त्रिक, स्थावर नाम, इन सोलह कर्म प्रकृतियोंको पहले विभागमें क्षय करता है। मध्यके आठ कषायोंको दूसरे भागमें नष्ट करता है । तीसरे भागमें नपुंसक वेद, चौथे भागमें स्त्री वेद और पाँचवें भागमें हास्यादि पटकको क्षय करता है। बाकीके चार विभागोंमें क्रमसे पुरुष वेद, क्रोध, मान, मायाका नाश करता है।