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(१३८) गुणस्थानक्रमारोह. वायुका मेल या संबन्ध है । जब तक जहाँ पर वायुकी प्रवृत्ति होती है तब तक वहाँ पर मनकी प्रवृत्ति होती है और जब तक जहाँ पर मनकी प्रवृत्ति होती है तब तक वहाँ पर वायुकी भी प्रवृत्ति अवश्य होती है । जब दोनोंमसे एकका भी नाश हो जाता है तब दूसरेका स्वतः ही नाश हो जाता है और एककी प्रवृत्ति होनेसे दूसरेकी प्रवृत्ति भी स्वतः ही हो जाती है । मन और वायुकी प्रवृत्ति नष्ट होनेसे इन्द्रिय वर्गकी शुद्धि होती है और इन्द्रिय वर्गका नाश होनेसे मोक्ष पदकी सिद्धि होती है । वायुके जय करनेसे ही मनकी निश्चलता प्राप्त होती है और तथा प्रकारकी निश्चलताको प्राप्त करके योगी महात्मा निष्पकंप तया ध्यानमें लीन हो सकता है। मन और पवनको जीतने वाले योगी महात्मा सदा काल ध्यानमें निश्चल रहते हैं। शास्त्रमें कहा भी है-प्रचलति यदि क्षोणीचक्रं चलन्त्यचला अपि, प्रलय पवन
खा लोलावलन्ति पयोधयः । पवनजयिनः सावष्टम्भप्रकाशित शक्तयः, स्थिरपरिणतेरात्मध्यानाचलन्ति न योगिनः ॥ १ ॥ अर्थ-कदाचित् पृथ्वी चक्र चलायमान हो जाय, पर्वत चलायमान हो जाय. प्रलय कालके प्रचंड पवनसे समुद्र भी चलायमान हो जायँ तथापि पवनको जीतने वाले, अवष्टंभ सहित अपनी शक्तिको प्रकाशित करने वाले और स्थिर परिणति होनेसे योगी महात्मा आत्म ध्यानसे चलायमान नहीं होते । उन योगियोंको जो कुछ उस समाधि ध्यानम आनन्दका अनुभव होता है सो वे ही जान सकते हैं। . अब शास्त्रकार भावकी प्रधानता बताते हैंप्राणायामक्रमप्रौढि स्त्र रूढयैव दर्शिता। क्षपकस्य यतः श्रेण्यारोहे भावो हि कारणम् ॥५९॥