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सातवाँ गुणस्थान. (१११.) यमें बाह्य तथा आन्तरंगिक जल्प कल्लोल उपशमताको प्रास हो गया है याने जिनके हृदयमें किसी भी प्रकारके संकल्प विकल्प पैदा ही नहीं होते और स्वच्छ विद्यारूप विकसित कमलिनीसे सुशोभित मन रूप सरोवरके अन्दर निर्लेप तया आत्मारूपी हंस सदा काल स्वात्मानुभवरूप अमृतका पान करता है, उन्हें निष्पन्न योगी कहते हैं। - इस गुणस्थानमें योगी पुरुष पूर्ण तया ध्यानाधिकारी होता है अतएव अब शास्त्रकार उसी बातको प्रतिपादन करते हैंधर्मध्यानं भवत्यत्र, मुख्यवृत्त्या जिनोदितम् ।
रूपातीत तया शुक्लमपि स्यादंशमात्रतः ॥३५॥ ___ श्लोकार्थ-इस अप्रमत्त गुणस्थाममें मुख्य वृत्तिसे सर्वज्ञोपज्ञ धर्म ध्यान होता है तथा रूपातीत तया अंश मात्र शुक्ल ध्यानकी भी संभावना होती है। __व्याख्या-सप्तम मुणस्थानमें मैत्री, प्रमोद, कारुण्य तथा माध्यस्थादि भावनाओं सहित मुख्य वृचिसे जिनेश्वर देव प्रणीत अनेक प्रकारका धर्म ध्यान होता है, वह धर्म ध्यान आज्ञाविचवादि या पिण्डस्थादि भेदोंसे चार प्रकारका होता है, आज्ञाविचयादि धर्म ध्यानके चार पायोंका स्वरूप प्रथम लिख चुके हैं, अतः अब संक्षेपसे पिण्डस्थादि धर्म ध्यानके चार भेद बताते हैं। पिण्डस्थ-शरीररूप पिण्डमें रही हुई अलख, अगोचर, अनन्त ज्ञानमय अरूपी आत्मा शरीरसे भिन्न है, अनादि कालसे आत्माके साथ कर्मका संयोग होनेसे आत्मा शरीरको धारण करती है। शरीर मठमें रही हुई आत्मा जगतके पौगलिक पदार्थोंको जिनके साथ इसका वास्तविक कुछ भी संबन्ध नहीं अपने मान बैठी है.