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आठवाँ गुणस्थान.
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स्थानमें रहा हुआ योगी शोक, अरति, अस्थिर नाम, अशुभ नाम, अपयश नाम, तथा असाता वेदनीय, इन छ: प्रकृतियोंका अभाव होनेसे तथा आहारक शरीर और आहारक अंगोपनिका बन्ध होनेसे ५९ उणसठ कर्म प्रकृतियोंको बाँधता है। यदि देव संबन्धि आयु वहाँ पर न बाँधे तो अट्ठावन ही कर्म प्रकृतियोंका बन्ध करता है। स्त्यानर्द्धि त्रिक, आहारक द्वय,इन पाँच प्रकृतियोंको वर्जकर ७६ छयत्तर कर्म प्रकृतियोंको वेदता है और १३८ एकसौ अड़तीस कर्मप्रकृतियोंको सत्तामें रखता है । पूर्वोक्त रीतिसे योगी पुरुष सातवें गुणस्थानको समाप्त करके आठवें गुणस्थानों प्रवेश करता है।
॥ सातवाँ गुणस्थान समाप्त ॥
अब अपूर्वकरण, अनिवृत्तिवादर, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह, इन पूर्वोक्त नाम वाले यथाक्रमसे आठवें, नवों, दशवें, ग्यारहवें तथा बारहवें गुणस्थानोंका शास्त्रकार प्रथम सामान्य तया नामार्थ फरमाते हैंअपूर्वात्मगुणाप्तित्वादपूर्वकरणं मतम् । भावाना-मनिवृत्तित्वादनिवृत्ति-गुणास्पदम् ॥३७॥ अस्तित्वात्सूक्ष्मलोभस्य, भवेत्सूक्ष्मकषायकम् । शमनाच्छान्तमोहं स्यात्, क्षपणातक्षीणमोहकम् ॥३८॥
. ॥ युग्मै॥
श्लोकार्थ-अपूर्व आत्म गुण प्राप्तिसे अपूर्वकरण नामागुण स्थान माना है । भावोंकी अनिवृत्ति होनेसे अनिचिकरण गुण