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( १२६) गुणस्थानक्रमारोह. अपूर्वादि द्वयैकैक गुणेषु शमकः क्रमात् । करोति विंशतः शान्ति, लोभाणुत्वं च तच्छमम् ।।४२||
श्लोकार्थ-अपूर्वकरणादि दो गुणस्थानों में और एक एक आगेके गुण स्थानों में शमक महात्मा मोहनीय कर्मकी क्रमसे बीस प्रकृतियोंको उपशान्त करता है, तथा लोभ प्रकृतिकी लघुता और उसको उपशम करता है। ___व्याख्या-शमक महात्मा अपूर्वकरण तथा अनिवृत्ति बादर, इन आठवें और नववें गुणस्थानोंमें सात प्रकृतियोंसे उत्तर एक संज्वलन लोभको वर्ज कर मोहनीय कर्मकी बीस प्रकतियोंको उपशान्त करता है। इसके बाद क्रमसे आगे बढ़ता हुआ सूक्ष्म संपराय नामक दशवें गुणस्थानमें जा कर संज्वलन लोभको बिलकुल सूक्ष्म-पतला कर देता है। फिर क्रमसे आगे बढ़ता हुआ उपशान्तमोह नामा ग्यारहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है
और दशवें गुणस्थानमें सूक्ष्म किये हुए पूर्वोक्त संज्वलन लोभको वहाँ पर ही सर्वथा उपशान्त कर देता है । ग्यारहवें गुणस्थानमें रहा हुआ महात्मा १ एक ही प्रकृतिका बन्ध करता है, ५९ उणसठ प्रकतियोंको वेदता है और १४८ एकसौ अड़तालीस ही कर्म प्रकृतियोंको सत्तामें रखता है। ___ उपशान्तमोह गुणस्थानमें जिस प्रकारका सम्यक्त्व, चारित्र और भाव, उपशमक योगीको होता है सो कहते हैंशान्तदृग्वृत्त मोहत्वा-दत्रौपशमिकाभिधे । स्यातां सम्यक्त्वचारित्रे, भावश्चोपशमात्मकः॥४३॥
श्लोकार्थ-शान्त दृग्वृत्तमोह होनेसे यहाँ पर सम्यक्त्व और