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(१२८) गुणस्थानकमारोह. उपशमश्रेणीवाला महात्मा मोहजनित प्रमाद रूप कालुष्यतामें पड़कर पुनः संसार चक्रमें परिभ्रमण करता है। शास्त्रमें भी कहा है-सुअ केवली आहारग, उज्जुमई उवसंत गाविहुपमाया। हिंडंति भवमणंतं तयणंतरमेव चउगइआ ॥१॥ अर्थ-श्रुतकेवली-चतु. दश पूर्वके पाठी, आहारक लब्धिवाले, तथा ऋजुमति ज्ञानको धारण करनेवाले महात्मा भी मोहजन्य प्रमादके वश होकर चतुतिरूप संसारमें अनन्ते भव परिभ्रमण करते हैं। उपशमश्रेणीवाला महात्मा कहाँ तक चढ़ सकता है और पड़ कर किस गुण. स्थानमें जाता है सो कहते हैंअपूर्वाद्यास्त्रयोप्यूर्ध्वमेकं यान्ति शमोद्यताः। चत्वारोपि च्युतावाद्यं, सप्तमं वान्त्यदेहिनः॥४५॥ ___ श्लोकार्थ-अपूर्वकरणादि गुणस्थानवाले उपशमक उपशम करनेमें उद्यम करते हुए तीनों ही ऊपर एक गुणस्थानमें जाते हैं
और च्युत होकर चारों ही प्रथम गुणस्थानमें आते हैं, तथा अन्त्य देही सातवें गुणस्थानमें आते हैं।
व्याख्या-उर्ध्व गमनको आश्रय करके उपशमश्रेणीगत योगी एक एक गुणस्थानको प्राप्त करते हैं, अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थानसे अनिवृत्ति वादर गुणस्थानको प्राप्त करते हैं, अनि. वृत्ति बादर गुणस्थानसे सूक्ष्म संपराय गुणस्थानको प्राप्त करते हैं
और सूक्ष्म संपराय वाले उपशान्तमोह गुणस्थानको प्राप्त करते हैं । पतन विषयमें अपूर्वकरण गुणस्थानसे लेकर उपशान्त मोह गुणस्थान पर्यन्तवाले चारों ही योगी प्रथमके मिथ्यात्व नामा गुणस्थानमें जाते हैं। किन्तु जो योगी उसी भवमें मोक्ष जानेवाला है, वह पूर्वोक्त गुणस्थानोंसे पड़ता हुआ सातवें गुणस्थानमें आकर क्षपकश्रेणीमें बारूद हो जाता है। जिसने उस भषमें एक ही