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आठवाँ गुणस्थान. (१३१) आयु और दृग्माहे सप्तक क्षय होता है। इन दश प्रकृतियोंको पूर्वोक्त गुणस्थानों में क्षय करके तथा धर्म ध्यानमें अभ्यास करके विशुद्ध बुद्धिवाला महात्मा आठवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है।
व्याख्या-जिसने अभी तक आयुका बन्ध नहीं किया है वह चरम शरीरी क्षपक महात्मा असंयत-अविरति नामा चतुर्थ गुणस्थानमें नरक संबन्धि आयुके बन्धको सत्तामेंसे नष्ट कर देता है, पाँचवें गुणस्थानमें जा कर वह महात्मा तिर्यच संवन्धि आयु बन्धके योग्य कर्म दलियोंको जड़ मूलसे क्षय कर देता है और सातवें गुणस्थानमें जा कर देवता संबन्धि आयु बन्धके योग्य कर्म प्रकृतियोंको नष्ट करके चार अनन्तानुबन्धि और तीन मोहनी, इस दृग्मोह सप्तकको क्षय करता है। इस प्रकार एकसौ अड़तालीस कर्म प्रकृतियोंमेंसे पूर्वोक्त दश कर्म प्रकृतियों को नष्ट करके क्षपक योगी एकसौ अड़तीस कर्म प्रकृति सत्तावाले आठवें गुणस्थानको प्राप्त करता है। क्षपक महात्मा पूर्वोक्त गुणस्थानोंसे उत्कृष्ट धर्म ध्यानका अभ्यास करता हुआ ही आठवें गुणस्थानमें जाता है, क्योंकि अभ्यास द्वारा ही मनुष्य उच्च गुणोंको प्राप्त करता है और अभ्याससे ही मनुष्यको तत्वकी प्राप्ति होती है। शास्त्रमें भी कहा है-अभ्यासेन जिताहारोऽभ्यासेनैव जितासनः । अभ्यासेन जितश्वासोऽभ्यासेनैवानिलत्रुटि: ॥१॥ अभ्यासेन स्थिरं चित्तमभ्यासेनजितेन्द्रियः । अभ्यासेन परानन्दोऽभ्यासेनैवात्मदर्शनम् ॥ २ ॥ अभ्यासवर्जितैानैः, शास्त्रस्थैर्फलमस्ति न। भवेनहि फलैस्तृप्तिः, पानीय-प्रतिविम्बितैः ॥३॥ अर्थ-अभ्यास द्वारा ही मनुष्य आहारको जीत सकता है, अभ्यास द्वारा ही दृढ आसन कर सकता है, अभ्यास द्वारा ही वासका निरोध कर सकता है, अभ्याससे ही इन्द्रियोंको जीत