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( ११२) गुणस्थानक्रमारोह. पौगलिक पदार्थोंके रूप, रस, गन्ध, स्पर्शमें सदा काल परिवर्तन होता रहता है, अतएव उनका संयोग वियोग होनेके कारण आत्मा सुख दुख मानती है । अनादि काल संचित कर्मकी प्रबलतासे आत्मा अपने स्वभावको भूल कर विभाव दशामें लीन हो गई है, इसी कारण कर्मोंकी वृद्धि करती हुई संसार चक्रमें परिभ्रमण करती है। आत्मा जो अनेक प्रकारके रूपोंको धारण करती देख पड़ती है, यह सब आत्म पर्यायोंमें परिवर्तन कराने वाला कर्म ही है। क्योंकि कर्मके संसर्ग विना जीवके स्थूल पर्यायोंमें कभी फेरफार हो ही नहीं सकता। आत्माका स्वभाव विभावदशा भजनेका नहीं । आत्मा सिद्ध परमात्माके समान सत्तामान है । आत्माका स्वभाव भवभ्रमण करनेका नहीं, यदि ऐसा न होता तो सिद्धास्माको भी पुनः संसारमें अवतार धारण करनेका समय प्राप्त होता, परन्तु मुक्त दशामें कर्माभाव होनेसे सिद्धात्माको पुनः संसारमें अवतार धारण करनेका कोई कारण नहीं । इसी कारण मुक्तावस्थामें सिद्धात्मा अपने असली स्वरूपमें रमणता करती है। आत्माके साथ जब कर्मका अत्यन्ताभाव हो जाता है, तब फिर आत्मा अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करके कभी विभाव दशामें जाती ही नहीं। अनादि कालसे समस्त संसारी जीवोंको ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्म ही निज स्वरूपसे विमुख करके परस्वरूपमें लगा रहे हैं। जब आस्माकी संसार पर्यटन की स्थिति परिपक हो जाती है तब जीवको सम्यक्त्वादि सामग्री प्राप्त होती है। इस सामग्रीके द्वारा उत्तरोत्तर आत्मीय गुगोंको प्राप्त करता हुआ समग्र कर्मोंका नाश करके जीव अपनी अनन्त ज्ञानमयी शक्तिको प्रगट करता है और उससे भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान, इन तीनों कालमें होने वाले पदार्थोंको अनन्त गुण पर्यायों सहित एक समयमें ही जानता और देखता