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सातवाँ गुणस्थान. अस्तित्वका ही प्रतिपादन किया जाय तो नास्तित्वका और नास्तित्वका ही प्रतिपादन किया जाय तो अस्तित्वका अभाव रूप दोष उपस्थित होता है। सर्वज्ञ महात्मा एक पदार्थको अ. नन्त धर्मयुक्त एक ही समयमें देख लेते हैं, परन्तु तद्गत सर्व धर्मोंका स्वरूप वे वचन द्वारा कथन नहीं कर सकते, क्योंकि पदार्थकी व्याख्या क्रमानुसार की जाती है । ज्ञानी महात्मा एक समय अनेक पदार्थोंको अपनी ज्ञान शक्तिसे जान लेते हैं और देख लेते हैं, किन्तु जब वे उन अनन्त धर्मात्मक पदार्थों की व्याख्या करते हैं तब क्रमसे एक एक पदार्थकी ही व्याख्या कर सकते हैं । इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यानमें स्याद्वाद (अनेकान्त) मतसे आत्माका स्वरूप समझना चाहिये। ___ अब दूसरे पदस्थ ध्यानका स्वरूप लिखते हैं। पदस्थ ध्यानमें पदका ध्यान किया जाता है। वह मत मतान्तरोंकी अपेक्षासे अनेक प्रकारका होता है, अर्थात् भिन्न भिन्न मन्तव्य होनेसे भिन्न भिन्न इष्ट देवोंके नामका स्मरण-ध्यान किया जाता है।
जिस प्रकार ॐ नमो वासुदेवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः सर्वज्ञाय, ॐ नमो वीराय, इत्यादि अनेक प्रकारका हो सकता है। जैन दर्शन सर्वोत्तम अनादि सिद्ध पंच परमेष्ठी मंत्रको इष्ट माना है । इस इष्ट पदका ध्यान-स्मरण अनेक प्रकारसे किया जाता है, जैसे नमोऽहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः, नमोऽरिहन्तसिद्धसाहु,नमः असिआउसा, ॐ नमोनमः, एवं अनेक तरहसे परमेष्ठी पदका स्मरण किया जाता है। एक
कार शब्दमें ही पंच परमेष्ठीका समावेश हो जाता है, इसी कारण कितने एक लोग ॐकार पदका ध्यान किया करते हैं। ॐकार पदमें पंच परमेष्ठी पदका समावेश इस प्रकार