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छठा गुणस्थान. (१०५) दैवयोगसे अप्रमत्त गुणस्थान द्वारा प्राप्त होनेवाले निरालंबन तथा निर्विकल्प मनोजनित समाधिरूप ध्यानांश अमृत आहारका क्षणमात्र आस्वाद प्राप्त करके प्रमत्त गुणस्थानके योग्य जो पड़ावश्यक क्रिया कलाप है, उसे कदन्न भोजनके समान मानता हुआ रुचिसे ग्रहण नहीं करता । उससे घृणा करता है
और मेवा मिष्टान्न मिश्रित श्रेष्ट भोजनके समान पूर्वोक्त निरालंबन ध्यानको प्रथम संहनन आदिके अभावसे सदा काल प्राप्त नहीं कर सकता । इस लिए सामायिकादि षड़ावश्यकको छोड़कर तथा निरालंबन ध्यानको न प्राप्त करके कदाग्रह-ग्रसित पूर्वोक्त विमूढ दोनों ही वस्तुओंसे खाली रहकर अपनी आत्माको कदर्थनाका भागी बनाता है।
परम संवेगरूप पर्वतके शिखरों पर आरूढ होकर बड़े बड़े आचार्योंने भी निरालंबन ध्यानकी प्राप्तिका मनोरथ ही किया है किन्तु प्राप्त नहीं किया, क्योंकि निरालंबन ध्यान सातवें अप्रमत्त गुणस्थानसे ही प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं । पूर्वाचायाँके अभिलाष-चेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्धसं, तत्संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्य समाश्रित्य च । पर्यकेन मया शिवाय विधिवच्छून्यैक भूभृद्दरीमध्यस्थेन कदाचिदर्पितदृशा स्थातव्यमन्तर्मुखम् ॥१॥ अर्थ-चित्तवृत्तिके निरोधसे इन्द्रियोंके समूहको निग्रह करके, आना जाना तथा प्राणवायुको बन्द करके, पर्यक आसनसे धैर्यका आश्रय लेकर किसी एक पर्वतकी गुफाके अन्दर एकान्त स्थानमें निश्चल दृष्टि लगाकर विधि पूर्वक मोक्षके लिए अन्तर्मुहूर्त काल तक मुझे कभी ठहरना चाहिये । अर्थात् पूर्वोक्त विधि पूर्वक निरालंबन ध्यानकी दशा मुझे कब प्राप्त होगी ?। चित्ते निश्चलतां गते प्रशमिते रागाद्यविद्या मदे, विद्रा
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