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(१०४) गुणस्थानक्रमारोह. कार करे उसको चाहिये कि वह व्यवहारको न छोड़े, क्योंकि व्यवहारका लोप होनेसे तीर्थका भी लोप हो जाता है । इसी तरह जो मनुष्य अधिकार प्राप्त किये बिना ही उस अधिकार साध्य वस्तुको सिद्ध करनेका प्रयत्न करता है, वह मनुष्य अन्तमें खेदको प्राप्त होकर अपने किये प्रयत्नको निष्फल करता है। फिर इसी बातको सिद्ध करनेके लिए यहाँ पर एक छोटासा दृष्टान्त लिखते हैं।
कोई एक आदमी कि जिसने गरीष हालत होनेके कारण जन्मसे लेकर आज तक क्षीर वगैरह श्रेष्ठ भोजनका आस्वाद प्राप्त ही नहीं किया, अपने घरपर सदैव कदन मात्रसे पेट भरता था। दैवयोग एक दिन किसी एक समृद्धिशाली मनुष्यने उसे अपने 'घर जीमनेके लिए न्यौता दे दिया। उस समृद्धिशाली मनुष्यने पूर्वोक्त गरीब आदमीको अपने घरपर बुलाकर बड़े प्रेमसे अपूर्व मेवा मिष्टान्न मिश्रित भोजन जिमाया। अब वह अबोध गरीब आदमी उस समृद्धिशालीके घरसंबन्धि भोजनका आस्वाद लेकर अपने घरके. कदन्नसे घृणा करता है। अब उसे अपने घरका कदन्न भोजन नहीं रुचता। अब वह प्रतिदिन भूखा रहकर उस एक दफाके प्राप्त किये हुए पराये घरके भोजनकी इच्छा करता है, परन्तु अब वह मेवा मिष्टान्न मिश्रित भोजन कहाँसे प्राप्त हो ? इस तरह वह गरीब रंक अपने घरके कदम भोजनको त्यागकर और पराये घरके मिष्ट भोजनको प्राप्त न करके विचारा दोनों तर्फसे भ्रष्ट होकर खेदको प्राप्त होता है । यस ठीक उसी तरह पूर्वोक्त प्रमादी साधु प्रमत्त गुणस्थान साध्य जो स्थूलमात्र पुण्यकी पुष्टिका कारणभूत षड़ावश्यकादि क्रियाकलाप-कष्टानुष्ठान है, उसे न करता हुआ कदाचित्