________________
(९०) गुणस्थानक्रमारोह. करना चाहिये कि अनादि कालसे जीवको अनन्त दुःखोंका अनुभव करानेवाले कर्मोंका विनाश किस प्रकार हो सकता है, मैं उस उपायको शोध कर उसमें तत्पर होऊँ । इस तरहके विचार करनेसे आत्मा आश्रव (कर्मबन्ध) से मुक्त होकर कोंकी हानी करती है और इसी क्रमसे आत्मीय सुखके उपायोंमें संलग्न होकर मोक्षाधिकारी बनती है।
धर्म ध्यानका तीसरा पाया विपाकविचय नामक है। तमाम जीवोंकी सत्ता एक समान ही है, तथापि संसारमें कितने एक मनुष्य धनाढ्य, कितने एक भिखारी कंगाल देख पड़ते हैं। कितने एक विद्वान, कितने एक मूर्ख देखनेमें आते हैं, एवं कितने एक मनुष्योंको अनेक प्रकारके भोगोंसे सुखी और कितने एक प्राणियोंको अनेक प्रकारके रोगोंसे दुखी देखते हैं । संसारमें कोई भी प्राणी अपने प्रति दुःख नहीं इच्छता तथापि अनेक प्रकारके भावों, अनेक प्रकारकी आकृतियों तथा अनेक प्रकारकी प्रवृत्तियोंको धारण करता है, यह सब कर्मके विपाकोदयका ही फल है। कर्म के प्रभावसे जीव दो प्रकारका विपाक-फल भोगता है । जिसमें एक मधुर और दूसरा कटु । पुण्य फलविपाक मधुर और पाप फलविपाक कटु समझना । पूर्वोक्त दोनों ही विपाक शुभाशुभ कर्म जन्य हैं। जिस वक्त जीवके पूर्वकृत शुम कर्मका विपाकोदय होता है, उस वक्त यदि उस सुखप्रद विपाकको जीव समभाव तया भोग लेवे, तो उस विपाकोदयसे आगेके लिए कर्मबन्ध नहीं होता और यदि जो उस विपाकोदयको भोगते हुए उसमें विसंभाव हो जाय, तो उससे भविष्यकालमें कटु विपाक फल देनेवाला अंकूर फूट निकलता है। इसी तरह अशुभ कर्मका विपाकोदय होने पर यदि उसे समभावसे