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गुणस्थानक्रमारोह.
किये जैन धर्मको तो प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु बुद्धिकी मन्दता होने के कारण सूक्ष्म पदार्थ समझ में न आने से सर्वज्ञ देवके कथनमें उन्हें शंका रहती है, वे मनमें विचारते हैं कि प्रभुने साधारण वनस्प तिमें एक शरीर में अनन्त जीव फरमाये हैं, भला यह बात किस तरह संभवित हो सकती है ? इत्यादि कितनी एक बात पूर्वोक्त रीति से शंका रखनेवाले मनुष्यको सांशयिक मिथ्यात्व होता है । पाँचवाँ अनाभोगिक मिथ्यात्व जो एकान्त जड़ बुद्धिवाले महा मृढ प्राणी होते हैं, जो धर्म या अधर्मको समझने में तो सर्वथा असमर्थ ही हैं, किन्तु धर्माधर्मका नाम तक भी नहीं समझ सकते, ऐसे एकेन्द्रियादि जीवों में अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है | ये पूर्वोक्त सत्तावन हेतु जीवको संसार में परिभ्रमण कराते हैं । इस प्रकार आज्ञाविचय ध्यान बड़ा गहन और विस्तारवाला हैं, ध्यानी पुरुषको इससे अवश्य परिचित होना चाहिये । पूर्वोक्त जिनेश्वर देवकी आज्ञा पूर्वक जो ध्यान किया जाता है उसे धर्म ध्यानका आज्ञा विचय नामक प्रथम पाया कहते हैं ।।
धर्म ध्यानका दूसरा पाया अपायविचय नामक है। ध्यानी मनुष्य को यह विचार करना चाहिये कि मेरी आत्मा सदा काल सुख इच्छती है और अनादिकाल से सुख प्राप्तिके लिए अनेकानेक उपाय भी किया करती है तथापि सुखके बदले में दुःखोंकी ही परंपरा कायम रहती है और सुख प्राप्तिके किये हुए उपाय भी सब निष्फल चले जाते हैं। मेरी आत्मा के अन्दर अनन्त अध्यावाघ सुख रहा हुआ है, उस सुखकी प्राप्तिमें विघ्नरूप और मेरे किये हुवे अनेक उपायोंको निष्फल करनेवाला अवश्य कोई न कोई शत्रु होना चाहिये । मेरी आत्मसत्ताको प्रगट होने में Free रनेवाला कोई बाह्य शत्रु नहीं हैं, किन्तु अनादिकाल से