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छठा गुणस्थान. (८९) मेरे पीछे लगा हुआ अभ्यन्तर कर्म शत्रु है । वह अभ्यन्तर कर्म शत्रु मेरे अन्दर ही बैठा हुआ मेरे किये हुए उपायोंको सहजमें ही निष्फल कर डालता है। इस अभ्यन्तर कर्मशत्रुने ही मेरे बाह्य शत्रु बनाये हुए हैं और यह शत्रु मुझे अनादि कालसे अनेक प्रकारके दुःख दे रहा है। यही मुझसे इस संसाररूप नाटकमें नाटक पात्रके समान अनेक प्रकारके वेश भजवा रहा है । जैसे मदारी अपने वशीभूत बन्दरसे जैसा नाच नचावे वैसा ही उसे नाचना पड़ता है, बस उसी तरह इस कर्मरूप मदारीने जीवको अपने वश करके बन्दरके समान बना रक्खा है । यह कर्म कलं. दर जीवसे नाना प्रकारके नाच नचाता है । इस अभ्यन्तर कर्म शत्रुने अपने साथमें सैन्य वगैरह बहुतसा बल दल इकट्ठा किया हुआ है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष ईर्षा आदि सैन्य द्वारा यह शत्रु सदा काल आत्माको दुःख दे रहा है, सो भी एक भक्में नहीं किन्तु अनन्त भवोंसे पीछे पड़ा है, एक भवमें भी पीछा नहीं छोड़ता । अतः जब तक यह कर्म शत्रु पराजित न हो तब तक आत्माको वास्तविक सुख नहीं मिल सकता। मुख्य तया आत्माको अपाय (कष्ट) देनेवाला एक महा मोहनीय कर्म है, इसके सहचारि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, तथा अन्तराय कर्म भी इसके साथ ही रहते हैं। जब यह मोहनीय कर्म शत्रु जीत लिया जाय तब इसके सहचारि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म इसके साथ ही पराजित हो जाते हैं। बाकी रहे आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्म शत्रु, ये चारों ही पूर्वोक्त मोहनीय कर्म शत्रुके पराजित होने पर निर्बल होकर स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं । फिर संसारमें रह कर आत्माको कभी भी अपाय भोगनेका समय नहीं आता । अपायविचय धर्म ध्यानके ध्याताको इस वातका विचार
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