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छठा गुणस्थान.
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मगर उसका वह स्वभाव या शक्ति कर्मरूप भारसे दबी हुई है । आत्मा के साथ अनादिकाल से लगे हुए पूर्वोक्त कर्म बन्धनरूप भारका अभाव होनेसे उसकी सहज स्वाभाविक अनन्त शक्ति प्रगट हो जाती है । ध्यानी पुरुषको अपनी निन्दा स्तुति सुनकर सदा काल मध्यस्थ भावमें रहना चाहिये, क्योंकि संसारके तमाम जीव कर्मवश हैं, कर्मके अन्दर तारतम्यता होने से जीवोंकी प्रकृतियोंमें भी तारतम्यता होती है। कितने एक मनुष्योंका स्वभाव दूसरेके गुण ही ग्रहण करनेका होता है और कितने एक मनुष्योंकी प्रकृति गुणों से भी दूषण ही ग्रहण करनेकी होती है । जिन जीaint स्थिति संसारमें अधिक परिभ्रमण करनेकी होती है, वे जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वश होकर अपने स्वरूपको भूल जाते हैं और एकदम बिना ही विचार किये दूसरोंकी निन्दा चुगली करने में उतर पड़ते हैं । किन्तु इससे वे अपने पुण्यरूप धनको नष्ट करके इस भव तथा परभवमें अनेक प्रकारके दुःखोंका अनुभव करते हैं, इसलिए निन्दक मनुष्यों के गर्हित वचन सुनकर सदैव मध्यस्थ भाव में रहना चाहिये । जीवको संसार चक्र में परिभ्रमण करानेवाले ५७ सत्तावन हेतु शास्त्रकारोंने फरमाये हैं, सो नीचें मुजब समझना, २५ पच्चीस कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार मूल कषाय हैं, इनके उत्तर भेद सोलह होते हैं, अनन्तानुवन्धि क्रोध, अमत्याख्यानीय क्रोध, प्रत्याख्यानीय क्रोध, संज्वलन क्रोध, अनन्तानुवन्धि मान, अप्रत्याख्यानीय मान, प्रत्याख्यानीय मान, संज्वलन मान, अनन्तानुबन्धि माया, अपत्याख्यानीय माया, प्रत्याख्यानीय माया, संज्वलन माया, अनन्तानुबन्धि लोभ, अप्रत्याख्यानीय लोभ, प्रत्याख्यानीय लोभ, संज्वलन लोभ, ये सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, स्त्रीवेद,