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(८०) गुणस्थानक्रमारोह. भाव होता है उसे मिश्र सम्यक्त्व कहते हैं । चौथा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-मोहनीय कर्मकी कितनी एक प्रकृतियोंके क्षय होने पर तथा कितनी एक प्रकृतियोंके उपशम होने पर जीवके अन्तःकरणमें जो भाव पैदा होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। पाँचवाँ औपशमिक सम्यक्त्व-मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियोंके उपशम होने पर औपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । छठा वेदक सम्यक्त्व-कर्म प्रकृतियोंको वेदे उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। यह वेदक सम्यक्त्व जीवको क्षायिक सम्यत्तवकी प्राप्तिसे क्षणमात्र पहले समय होता है। सातवाँ क्षायिक सम्यक्त्व-मोहनीय कर्मकी सातों प्रकृतियोंको सर्वथा क्षय करदेने पर क्षायिक सम्यत्त्व प्राप्त होता है और वह सम्यक्त्व फिर मोक्षपदकी प्राप्ति होने तक नष्ट नहीं होता, अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होकर फिर जाता नहीं।
तेरहवीं संज्ञी मार्गणा-मनवाले जीवको संज्ञी कहते हैं। संसारमें दो प्रकारके जीव हैं, एक तो संज्ञी और दूसरे असंज्ञी । देवता, नारकी तथा मातापिता के संयोगसे पैदा होनेवाले मनुष्य और तियच पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी कहाते हैं और पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तथा मातापिताके बगैर संयोग पैदा होनेवाले पंचेन्द्रिय संमूर्छम मेंडक वगैरह असंज्ञी कहलाते हैं। ___चौदहवीं आहार मार्गणा-जीव समय समय आहार ग्रहण करता है, इसे आहारिक कहते हैं और अनाहारिक-जिस समय जीव एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाता है उस समय यदि विग्रह गति करे तो उत्कृष्ट तीन समयतक अनाहारी रहता है। पूर्वोक्त इन चौदह मार्गणाओंका स्वरूप मनमें विचारना चाहिये । धर्मध्यानी प्राणीको सदा काल सर्व धर्मोंका मूल और परम पवित्र जीव दयाको अपने हृदयमें स्थान देना चाहिये ।