________________
( ६४ )
गुणस्थानक्रमारोह.
स्थापन करे, अन्य जीवोंको शुद्ध दयामय धर्मसे विमुख करके हिंसामय धर्ममें लगाकर आनन्दित होवे, वीतराग प्रभुके कथनानुसार शुद्ध आचारवान सम्यग्ज्ञान धारक, तथा शुद्ध सर्वज्ञ देवके धर्मके प्ररूपक तथा क्षमाशील ब्रह्मचर्यादि गुणोंसे सुशोभित साधु या श्रावककी महिमा सुनकर ईर्षा द्वेषसे उनके ऊपर असत्य कलंक देकर उनकी निन्दा करे करावे, तथा जब कोई अपनी असत्य बात भी सत्य मान ले तब मनमें बड़ा खुश हो या निर्गुणी होकर गुणी कहा कर खुश हो। धर्मके मिस हिंसा करनेमें कुछ दोष नहीं ऐसा उपदेश करे, अन्धे, लंगड़े, लूले, बहरे, कोढ़ी, अपंग वगैरह दुखी जीवोंको देख कर उनकी हँसी मस्करी उड़ाकर आनन्दित हो, जिन खेलोंमें वारंवार झूठ बोलना पड़े उन खेलोंमें आनन्द मनावे, दुसरों को दगाबाजी प्रपंचसे अपने जाल में फसाने के लिए सरासर झूठा बोले, बुद्धिकी चलाकी से या सफाईसे या इन्द्रजालसे अनेक प्रकारके कौतुक दिखा कर तथा यंत्र मंत्रादिके आडंबर बढ़ाकर लोगोंमें अपनी महिमा बढ़ावे और उस अपनी असत्य महिमाको सुनकर आनन्द मनावे, शा खोका अर्थ करते समय या व्याख्यान वांचते समय अपने गर्हित कर्मको छिपानेके लिये लोगों के मनमें अर्थसे विपरीत अनर्थ ठसावे । इत्यादि पूर्वोक्त कृत्योंकी प्रवृत्तिको शास्त्रकारोंने रौद्र ध्यानका मृषानुवन्धी नामक दूसरा भेद कहा है ।।
•
रौद्र ध्यानका तीसरा भेद तस्करानुबन्धि नामक है । अब उसका ही स्वरूप लिखते हैं ।।
यच्चौर्याय शरीरिणामहरहश्चिन्ता समुत्पद्यते । कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यत्संततम् । चौर्येणापि हृतेपरैः परधने यज्जायते संभ्रम । स्तच्चौर्य प्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं सुनिद्रास्पदम् ॥ १ ॥