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छठा गुणस्थान. (७१) गौणता रहती है अतः प्रसंगसे सालंबन धर्मध्यानका स्वरूप हम यहाँ पर ही लिखे देते हैं। धर्म ध्यानके चार पाये होते हैं, जिसमें आज्ञाविचय नामक प्रथम पाया है। आज्ञाविचय धर्म ध्यानका ध्याता अपने मनमें ऐसा चिन्तवन करे कि वीतराग सर्वज्ञ देवने प्रवचन द्वारा जो कुछ आज्ञा फरमाई है, वह बिल्कुल सत्य है। पदार्थों का स्वरूप मेरी समझमें यथार्थ नहीं आता यह मेरी ही बुद्धिकी मन्दता है। अथवा दूषम कालका प्रभाव, एवं शंसय भेदन करनेवाले सद्गुरु महाराजका अभाव । इत्यादि कारणोंसे मैं वस्तुके यथातथ्य स्वरूपको नहीं समझ सकता, किन्तु निःस्वार्थ एकान्त सर्व जीवोंके हितकारी श्री तीर्थकर सर्वज्ञ देवने अपने कैवल्य ज्ञानसे जो वस्तुओंका स्वभावस्वरूप कथन किया है, उसमें जरा भी फेरफार नहीं । सर्वज्ञ देवकी क्या आज्ञा है और उन्होंने किन किन पदार्थोंका किस स्वभाव या स्वरूपमें वर्णन किया है, प्रथम इसका विचार करनेकी परमावश्यक्ता है। वीतराग देवने कैवल्य ज्ञान और कैवल्य दर्शन प्राप्त करके अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक, इन तीनों लोकमें भूत, भविष्यत और वर्तमान कालमें जो जीव तथा पुद्गल (जड़) के अनन्त पर्यायोंका परिवर्तन हो रहा है, सो प्रगट तया बतला दिया है, अतः प्रभुकी आज्ञा द्वारा हम लोग चराचर पदार्थोंके स्वरूपको जान सकते हैं, उसमें भी अदृश्य पदार्थोके गुण तथा पर्याय इतने सूक्ष्म हैं कि साधारण मनुष्य तो क्या किन्तु बड़े बड़े चार ज्ञान धारक और बारह अंगके पाठी महामुनिवरोंके लक्षमें भी आने मुस्किल हैं। जो सूक्ष्म पदार्थ अपनी बुद्धि द्वारा तो समझमें आ ही नहीं सकते तथापि उन्हें हम शास्त्र द्वारा सत्य मानते हैं, उन सूक्ष्म पदार्थोंको भी