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(६८) गुणस्थानक्रमारोह ग्रह रखकर उसकी रक्षा करनेके लिए हृदयमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प द्वारा प्रयत्न करता है और उसके ही आलंबनसे अपनी बड़ाई समझकर मन ही मन फूला नहीं समाता तथा अपनेको सबका मालिक मानता है । इत्यादि प्रवृत्ति विचारोंको तस्वज्ञ पुरुषोंने रौद्र ध्यानका विषय संरक्षणानुबन्धी चौथा भेद कहा है। यह ध्यान संसारकी वासना रखनेवाले जीवोंमें होता है । संसारमें सब ही जीव बिलकुल पापी नहीं, इसी तरह सब जीव धर्मीष्ट या पुण्यात्मा भी नहीं हैं, किन्तु सब ही जीवोंके साथ अनादि कालसे पुण्य और पाप लगे हुए हैं । जीवको पापकी अधिकता होनेसे दुःखकी अधिकता होती है और पुण्यकी अधिकता होनेसे सुखकी अधिकता होती है । इस प्रकार पाप तथा पुण्यमेंसे जिसकी अधिकता होती है उसका फल प्रत्यक्ष आंखोंसे देख पड़ता है । जिस मनुष्य या जिस प्राणी के पुण्यका आधिक्य होता है, उसे उसके पुण्यानुसार सुख प्रदायक सुन्दर वस्तुओंका संयोग मिलता है, जो कि वह सुन्दर वस्तुओंका संयोग शाश्वत नहीं विनश्वर ही है तथापि आत्मीय सुखका स्वरूप न जानकर पौगलिक सुख को ही अपनी बुद्धिसे सुख समझकर उन संयोगोंको सदाके लिए कायम रखनेके वास्ते मनुष्य अनेक प्रकारके प्रयत्न करता है । पौद्गलिक वस्तुओंके लिये उत्तराध्ययन सूत्रमें फरमाया है कि-अधुवे असासयम्मी, याने संसारके संयोग-पौगलिक सुख आस्थिर अशाश्वत क्षणभंगुर हैं, क्षण क्षणमें वस्तुओंके स्वरूपका परिवर्तन होता रहता है । संसारमें जितने पौद्गलिक पदार्थ मनुप्योंके चित्तको आकर्षित करते हैं, वे सब ही परिवर्तनशील होनेसे समय समय उनकी हानी होती है । जो वस्तु आज मनुज्यको सुखदायक या मनोमोहक मालूम होती है, परिवर्तनशील