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पाँचवाँ गुणस्थान.
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चतुर्थ व्रत कहाता है । विषयका अभिलाष, ममत्व और तृष्णाका परित्यागरूप निश्चय से चतुर्थ व्रत कहाता है । निश्चय नयकी अपेक्षा यहाँ पर इतना और समझ लेना कि जिसने स्त्रीका त्याग किया है और अन्दर से फिर उस विषयकी लोलुपता रखता है, तो अवश्यमेव उसे तत्संबन्धि कर्मबन्ध होता है, जब तक वह अपने मैंनका उस विषय से निरोध न करे तब तक उसे उस व्रत से जो लाभ प्राप्त होना था, उससे वह वंचित रहता है ।
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श्रावकको नव प्रकारके परिग्रहका परिमाण करना और साधुको सर्व परिग्रहका त्याग करना, यह व्यवहार से पाँचवाँ व्रत है । भावकर्म जो राग द्वेष, अज्ञान तथा आठ प्रकारके द्रव्यकर्म, और देहकी मूर्छा तथा पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका परित्यागरूप निश्चयसे पाँचवाँ व्रत समझना चाहिये । कर्मादिक परवस्तुकी मूर्छाका परित्याग करने से ही निश्चयसे पाँचवाँ व्रत हो सकता है, क्योंकि शास्त्रमें मूर्छाको ही परिग्रह कहा है, यथा मुच्छा परिग्गहो बुत्तो ।
दिशाओंमें आनेजानेका परिमाण करना, यह व्यवहारसे छठा व्रत कहाता है और नरकादि गतिरूप कर्मके परिणामको जान कर उस तर्फ उदासीन भाव रखना तथा सिद्ध अवस्थाकी ओर उपादेय भाव रखना, इसे निश्चयसे छठा व्रत समझना । * प्रथम कहे मुजब भोगोपभोग व्रतमें सर्व भोग्य वस्तुओं का परिमाण करना, यह व्यवहारसे सातवाँ व्रत है । व्यवहार नयकी अपेक्षा कर्मका कर्ता तथा भोक्ता आत्मा ही है और निश्चय नयसे कर्मका कर्तापना कर्मको ही है, क्योंकि मन वचन कायका योग ही कर्मका कर्ता है, एवं भोक्तापना भी योग में ही रहा हुआ है । अज्ञानता से आत्माका उपयोग मिथ्यात्वादि कर्म ग्रहण करने के साधनमें मिल जाता है, किन्तु परमार्थ वृत्तिसे आत्मा कर्मपुद्गलोंसे