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(५२) गुणस्थानक्रमारोह. .
अब आगेके सात गुणस्थानोंकी समानता बताते हैं । अतःपरं प्रमत्तादि, गुणस्थानकसप्तके।
अन्तर्मुहूर्तमेकैकं, प्रत्येकं गदिता स्थितिः ॥२६॥ ___ श्लोकार्थ-अबसे आगेके सात गुणस्थानोंकी प्रत्येककी अन्तर्मुहूर्तकी स्थिति कही है।
व्याख्या-देशविरति गुणस्थानके बाद प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान, इन पूर्वोक्त सातों गुणस्थानोंकी प्रत्येककी एक एक अन्तर्मुहूते उत्कृष्ट स्थिति समझना ॥
अब छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थानका स्वरूप लिखते हैं। कषायाणां चतुर्थानां, व्रती तीब्रोदये सति । भवेत्प्रमाद युक्तत्वात्, प्रमत्त स्थानगो मुनिः ॥२७॥
श्लोकार्थ-व्रतोंको धारण करनेवाला मुनि, चौथे कषायोंका तीब्रोदय होनेपर प्रमाद युक्त होनेसे प्रमत्त गुणस्थानमें रहनेवाला होता है ॥
व्याख्या-प्राणातिपात विरमणादि पाँच महाव्रतरूप सर्वविरतिको धारण करनेवाला साधु-मुनिराज, संज्वलन नामक कषायोंका तीब्रोदय होनेसे प्रमाद युक्त होनेके कारण प्रमत्त गुणस्थानमें स्थिति करता है। प्रमाद पाँच प्रकारका होता है, मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा, यह पाँच प्रकारका प्रमाद ही जीवोंको संसार समुद्रमें डालता है । जब पूर्वोक्त संज्वलनादि कषायोंका महाव्रती मुनिराजको तीब्रोदय होता है, तब वह अवश्य ही प्रमाद युक्त होनेसे प्रमत्त गुणस्थानमें ही अन्तर्मुहूर्त काल तक