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पाँचवाँ गुणस्थान. (४९) इसे निश्चयसे ग्यारहवाँ पौषध व्रत कहते हैं। पौषध पार कर अथवा हमेशहके लिए साधु महाराजको या किसी विशिष्ट गुणधारी श्रावकको अतिथिसंविभाग करके दान देकर भोजन करना, इसे व्यवहारसे अतिथिसंविभाग व्रत कहते हैं और अपनी आस्माको तथा अन्यको ज्ञान दान करना, पठन, पाठन, श्रवण, श्रावण वगैरह निश्चय नयसे बारहवाँ अतिथिसंविभाग नामक व्रत कहा जाता है। पूर्वोक्त निश्चय और व्यवहार भेदों सहित ये बारह व्रत पाँचवें गुणस्थानमें रहे हुए श्रावकको मुक्तिफल प्रदायक होते हैं, किन्तु केवल व्यवहारसे ही ग्रहण किये हुए देवलोकादि सुखको प्राप्त कराते हैं ।
पाँचवें गुणस्थानमें रहनेवाले श्रावकको ग्यारह प्रतिमा धारण करनी चाहियें, अतः संक्षेपसे प्रतिमाओंका स्वरूप लिखते हैं। प्रतिमा-ये तप विशेषका अभिग्रहरूप होती हैं । सर्व विरतिको धारण करनेवाले साधु मुनिराजों संबन्धि बारह प्रतिमा होती हैं और देशविरति धारण करनेवाले श्रावक लोगोंकी ग्यारह प्रतिमा होती हैं।
श्रावककी पहली सम्यक्त्व प्रतिमा है, सो एक मास संबन्धी होती है, श्रावक एक मास तक सम्यक्त्व विशुद्ध रखकर त्रिकाल देव पूजन करे, उभय काल आवश्यक क्रिया करे, अन्य तीर्थयोंको वन्दन नमस्कार न करे, तथा उनके साथ आलाप संलाप दान अनुपदान वगैरह वर्जकर एक मास पर्यन्त एक दफा ही भोजन करे । इस प्रकार करनेसे एक मासकी पहली प्रतिमा समाप्त होती है। दूसरी व्रत प्रतिमा दो मास परिमाणवाली है। पूर्वोक्त ही विधि सहित अनुकंपादि गुण युक्त और शंकादि दोष रहित पूर्वोक्त अणुव्रतादि बारह व्रतोंको निरतिचारतया पाले। यह दूसरी