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दूसरा गुणस्थान.
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तीर्थकरनामकर्म, इन पाँचों प्रकृतियोंका उदयाभाव होनेसे एकसौ सत्रह कर्म प्रकृतियोंको वेदता है। आठोंहीकर्मकी एकसौअड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ सत्तामें रहती हैं।
॥ प्रथम गुणस्थान समाप्त ॥
अब दूसरे सास्वादन गुणस्थानको कथन करते हुए औपशमिक सम्यक्त्वका स्वरूप लिखते हैं
अनादिकालसंभूत-मिथ्याकर्मोपशान्तितः। स्यादौपशमिकं नाम, जीवे सम्यक्त्वमादितः ॥१०॥
श्लोकार्थ-अनादिकालजन्य मिथ्यात्व कर्मको उपशान्ति होनेसे जीवके अन्दर प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व होता है ।
व्याख्या-भव्यजीवके अन्दर अनादिकालसे रहा हुआ जो मिथ्यात्वकर्म है उस मिथ्यात्वकर्मके उपशान्त होजानेसे जीवको औपशमिकसम्यक्त्व होता है । अर्थात् ग्रन्थीभेदन करनेके समयसे लेकर प्रथम जीवको औपशमिक नामक सम्यक्त्व होता है। यह सामान्यार्थ हुआ, विशेषार्थ-औपशमिकसम्यक्त्व दो प्रकारका होता है, एकतो अन्तरकरणऔपशमिक और दूसरा स्वश्रेणीगतऔपशमिक सम्यक्त्व । अन्तरंकरणऔपशमिक सम्यक्त्व अपूर्वकरणके द्वार ग्रंथीभेदन करके और त्रिपुंजको न करके याने मिथ्यात्व कर्मपुद्गलराशिके अशुद्ध, अर्धशुद्ध तथा शुद्ध, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वरूप त्रिपुंज न करके तथा उदीर्णमिथ्यात्वको क्षय करनेपर और अनुदीर्णको उपशमा कर जो अन्तरकरणसे मुहूर्त्तमात्र काल जाता है वह सर्वथा मिथ्यात्वका अवेदन समय है, उस अन्तरमुहूर्त्तमात्र कालमें ही जीवको अन्तरकरणऔपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह अन्तरकरणऔपशमिक सम्यक्त्व जीवको एक दफाही होता है।