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चौथा गुणस्थान.
(१९) कोइ एक जीव अपनी मिथ्यात्व पुद्गलराशिको विभागित करके मिथ्यात्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीयरूप तीन पुंज करता है। जब वह अनिवृत्तिकरण करके शुद्ध होकर उदयमें प्राप्त हुवे मिथ्यात्वको क्षय करे और उदयमें न प्राप्त हुवे मिथ्यात्वको उपशमा देवे, तब उस जीवको क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। जब क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया, तब उसे मनुष्य तथा देवगति प्राप्त हो सकती है। अपूर्वकरण करके जिस जीवने तीन पुंज किये हैं, वह जीव यदि चतुर्थ गुणस्थानसे ही क्षपकपनेका प्रारंभ करे, तो प्रथम अनन्तानुबन्धि चार कषाय,१ मिथ्यात्व मोहनीय,१ मिश्र मोहनीय और १ सम्यक्त्व मोहनीय, इन सातों प्रकृतियोंको सत्तासे क्षय करनेपर उसे क्षायिक सम्यक्त्व गुण प्राप्त होता है । क्षायिक सम्यक्त्ववाले जीवने यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करनेसे पहले आयुका बन्ध न किया हो तो वह जीव उसी भवमें मोक्षपदको प्राप्त करता है, यदि पहले आयुका बन्ध करके पीछे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया हो तो वह जीव तीसरे भवमें मोक्षपदको प्राप्त करता है, और यदि असंख्य वर्षोंका मनुष्यायु या तिथंचायु बाँधकर पीछे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया हो तो वह जीव चौथे भवमें मोक्षको प्राप्त करता है।
अब अविरति गुणस्थानवी जीवका कृत्य बताते हैंदेवे गुरौ च सङ्के च, सद्भक्तिं शासनोन्नतिम् । अव्रतोपि करोयेव, स्थितस्तुर्यगुणालये ॥ २३ ।।
श्लोकार्थ-चतुर्थ गुणस्थानमें व्रतरहित भी जीव देव-गुरुसंघकी भक्ति तथा जिनशासनकी समुन्नति करता है ।