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पाँचवाँ गुणस्थान. पूर्वोक्त कष्टोंसे बच सकता है । अतएव परिग्रह परिमाण संबन्धि नियम यथाशक्ति अवश्य धारण करना चाहिये। . पूर्वोक्त पाँच अणुव्रतोंका स्वरूप कयन किया है, अब क्रमसे गुणवतोंका स्वरूप लिखते हैं।
जिसमें दश दिशाओं संबन्धि गमन करनेकी मर्यादा-नियम किया जाता है, उसे दिग्विरमण नामक प्रथम गुणव्रत कहते हैं। जिसमें पूर्व, अग्नि, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, अधो और उर्ध्व, इन दश दिशाओं में जानेका अमुक योजनों तक या अमुक कोसों तक अथवा अमुक भूमि पर्यन्त नियम किया जाता है, अर्थात् पूर्वोक्त दिशाओंमें अमुक हद तक ही गमनागमन करना, उस नियमित अवधीसे आगे न जाना, इत्यादि नियम जिस व्रतमें किया जाता है, उसे उत्तर गुणरूप प्रथम गुणव्रत कहते हैं।
इस पूर्वोक्त गुणवतको धारण करनेवाले गृहस्थकी तर्फसे त्रस तथा स्थावर जीवोंको अभय दान दिया जाता है, तथा लोभरूप समुद्रकी नियंत्रणा होती है, इत्यादि महान् लाभ इस प्रतको अंगीकार करनेसे होता है । गृहस्थको शास्त्रकार तपे हुए लोहेके गोलेकी उपमा देते हैं। जिस तरह अग्निमें तपाया हुआ लोहेका गोला जहाँ पर पड़ता है, वहाँ पर ही भूमिको भस्मीभूत कर डालता है, उसी प्रकार गृहस्थ भी अविरती होनेसे जिधर गमनागमन करता है याने जिस दिशामें जाता है, उधर ही उस तर्फके जीवोंको त्रास पहुंचाता है । यद्यपि गृहस्थ सर्व स्थानोंमें गमनागमन नहीं करता, तथापि उसे व्रत-नियम न होनेके कारण अविरति जन्य पापकर्म निरन्तर लगता रहता है । इस लिये. पूर्वोक्त गुणवतमें गृहस्थीको अवश्य विरति धारण करनी चाहिये।