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(३४) गुणस्थानकमारोह. आत्माको शान्ति प्राप्त होनेमें एक अद्वितीय महान् कारण है । जिन मनुष्योंको परिग्रह परिमाणमें किसी भी प्रकारका नियम नहीं होता, उन मनुष्योंको चाहे जितना लाभ होजाय तथापि उनकी इच्छा पूर्ण नहीं होती, बल्कि जितना जितना उन्हें लाभ होता जाता है, उतना उतना ही उन्हें लोभ बढ़ता जाता है।
प्रथम जिन्हें सौकी इच्छा थी आज उन्हें सौ प्राप्त होनेपर दो सौकी इच्छा होती है, कल जिसे एक हजार वसुवोंकी इच्छा थी आज एक हजार प्राप्त होनेपर उसे दस हजारकी इच्छा बढ़ गयी। कल जिसे एक लाख प्राप्त करनेकी इच्छा थी आज मुंबईमें रुईके व्यापारमें उसे उतना ही लाभ होनेपर एक करोड़ प्राप्त करनेका लोभ लगा है। बस अधिक क्या कहें इसी तरह राजा महाराजा तथा इन्द्रादिककी पदवी प्राप्त होनेपर भी इस जीवकी इच्छा पूर्ण नहीं होती। ज्यों ज्यों इसे इच्छित बस्तुका लाभ होता है, त्यो त्यों ही इसके हृदय-समुद्रमें तृष्णा तरंगें अधिकाधिक बढ़ती ही जाती हैं । ज्यों ज्यों हृदयमें तृष्णा-राक्षसी निवास करती है, त्यो त्यों शान्तिदेवी कोसों दूर भागती है । इसी कारण शास्त्रकारोंने इच्छानुरोध करनेके लिये यह परिग्रह परिमाण व्रत धारण करनेका फरमाया है । अधिक लोभी पुरुष बड़े बड़े पापकर्म करनेसे भी नहीं हिचकिचाते, तथा रात दिन कष्ट उठाते ही उनकी जिन्दगी पूर्ण हो जाती है।
लोभके वश होकर मनुष्य भयंकर पर्वतोंकी कन्दराओंमें भटकते हैं, अनार्य देशोंमें परिभ्रमण करते हैं, गहन समुद्रादि जलाशयोंमें प्रवेश करते हैं, दूसरे मनुष्योंके साथ खोटी लड़ाई, झगड़े टंटे करते हैं, तथा नीच आदमियोंकी सेवा उठाते हैं। यदि मनुष्यको परिग्रह परिमाण संबन्धि कुछ भी नियम हो तो वह