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गुणस्थानकमारोह.
अब भोगोपभोग नामक दूसरा गुणवत कहते हैं - जो वस्तु एकही दफा भोगने में आती है, फिर दुबारा भोगनेमें न आसके, ऐसी अन्नादि वस्तुओंको भोग कहते हैं और जो वारंवार भोगमें आती हैं, ऐसी सुवर्ण - आभूषण स्त्री वगैरह वस्तुओंको उपभोग कहते हैं । यह भोगोपभोग नामा गुणव्रत भोगसे तथा कर्मसे दो प्रकारका होता है । उसमें भोगके दो भेद हैं । जो वस्तु एक दफा ही उपयोग में ली जाती है, जैसे खाद्य पदार्थ एक ही दफा उपयोगमें आते हैं, बस इत्यादिको ही भोग कहते हैं। जो पदार्थ बारंबार शरीर के द्वारा उपयोगमें लेकर भोगे जाते हैं, जैसे वस्त्र, आभरण तथा स्त्री वगैरह, इसे उपभोग समझना । संसार में भोगोपभोग की वस्तुयें परिमित हैं, अतएव श्रावकको उन वस्तुओं के ग्रहण करनेमें नियमित परिमाण करना चाहिये | मुख्य वृत्ति से उत्सर्ग मार्ग में तो श्रावकको सदैव अचित्त भोजी होना चाहिये, यदि ऐसा न बनसके तो सचित्त वस्तु वगैरहका परिमाण करना चाहिये । परिमाण करने योग्य वस्तुओं के कुछनाम नीचे लिखते हैं। सचित्त, द्रव्य, विगई, उपान, तांबूल, वस्त्र, पुष्प, वाहन, शय्या, विलेपन, ब्रह्मचर्य, दिशागमन, स्नान, भक्तपान, ये चौदह प्रकाके नियम श्रावकको प्रतिदिन करने चाहियें । सजीव वस्तुको सचित्त वस्तु कहते हैं और निर्जीव वस्तुको अचित्त वस्तु कहते हैं । समयको पाकर सचित्त वस्तु अचित्त और अचित्त वस्तु सचित्त हो जाती हैं। जैसे श्रावण तथा भाद्रव मासमें बगैर छना आटा पाँच दिन तक मिश्र रहता है । असौज तथा कार्तिक मासमें चार दिन तक मिश्र रहता है, मागशिर तथा पोष मासमें तीन दिन पर्यन्त मिश्र रहता है । महा तथा फागुनके मासमें पाँच पहर तक मिश्र रहता है । चैत्र तथा वैशाकके महीने में चार पहर तक मिश्र
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