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पाँचवाँ गुणस्थान.
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असंख्य वार प्राप्त करता है। जोकि शास्त्रमें फरमाया है-सम्मत्तदेस विरया, पलीयस्स असंख भागमित्ताउ । अभवाउ चरित्ते, अणंत कालं सुअसमए ॥१॥ ___अर्थ-अनादि कालसे संसारमें परिभ्रमण करता हुआ एक भव्य जीव जब तक मोक्ष प्राप्त न करे तब तक तमाम संसारमें सम्यक्त्व सामायिक और देशविरति सामायिक, इन दो सामायिकको क्षेत्रपल्योपमके असंख्यातवें भागमें जितने आकाश प्रदेशोंका समावेश हो सकता है, उतने ही भवों तक प्राप्त कर सकता है। शास्त्रमें असंख्यके भी असंख्य भेद बताये हैं, अतः पूर्वोक्त प्रमाणवाले असंख्य भवों तक भव्य जीव सम्यक्त्व सामायिक और देशविरति सामायिकको प्राप्त करता है। किन्तु यह पूर्वोक्त परिमाण उत्कृष्टतया समझना । जघन्य (कमसे कम) तो एक ही भवमें प्राप्त करके मोक्षपद पा सकता है।
चारित्र (सर्वविरति) सामायिक भव्य प्राणी उत्कृष्टतया आठ भवों तक प्राप्त कर सकता है, इसके बाद मुक्तिपद प्राप्त करता है । परन्तु जघन्यतया तो मरुदेवीके समान एक भवमें ही प्राप्त करके सिद्धि गति पा सकता है। सामान्यतया श्रुतसामायिकको जीव अनन्त भवों तक याने अनन्त भवोंमें प्राप्त करता है, पर कमसे कम यहां भी पूर्वके समान ही एक भवमें प्राप्त करके मरुदेवीके समान मोक्ष प्राप्त कर सकता है । अल्प श्रुतसामायिकका लाभ अभव्य जीवको भी होता है और वह अवेयक देवलोक तक रहता है । अन्तरद्वारमें जो कहा है कि कोई एक जीव अक्षर ज्ञान प्राप्त करके पतित होकर पीछे अनन्त काल बाद प्राप्त करता है, सो वह उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिये । समकितादि सामायिकमें कमसे कम तो अन्तरमुहूर्त कालका और अधिकसे