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पाँचवाँ गुणस्थान.
(३३)
पायेणारंभकारकः। स च दुःख खनिन,तत:कल्प्या तदल्पता ॥२॥ अर्थ-पाय करके मनुष्य अधिक परिग्रह (संपत्ति) के लिये सदैव आरंभ समारंभ किया करता है, परन्तु अधिक परिग्रह निश्चय दुःखोंकी खान है, इस लिये उसका मनुष्यको जरूर परिमाण करना चाहिये, संसारमें संपत्तिको ही मनुष्योंने सर्व सुखोंका साधन मान रख्खा है, किन्तु जिन मनुष्योंको संतोष नहीं होता, उस संपत्तिको अमुक हद तक प्राप्त करनेका नियम नहीं होता, वे मनुष्य सदैव धनोपार्जनकी लालसामें अनेकानेक पापारंभ करनेमें तत्पर रहते हैं और इससे प्राप्त की हुई संपत्तिका भी उन्हें आनन्द नहीं प्राप्त होता, उनकी आत्माको किसी वक्त भी शान्ति प्राप्त करनेका समय ही नहीं मिलता। जिस मनुष्यको परिग्रहका परिमाण होता है, वह मनुष्य उतना प्राप्त होनेपर संतोष धारण करके उस संपत्तिका भी आनन्द लूट सकता है और आत्मोन्नतिके लिये शान्ति पूर्वक धर्म कर्म भी कर सकता है। परिग्रह परिमाणधारी मनुष्यको कदाचित् व्यापारमें उसके नियमसे अधिक लाभ हुआ हो तो उसे चाहिये कि अपने परिमाणसे अधिक उस धनको अपनी सन्तान या किसी अपने स्वजन संबन्धीके नाम कल्पित न करके श्रीसर्वज्ञ देवके कथन किये हुए सात क्षेत्रों ( स्थानों ) मेंसे जिस क्षेत्रमें त्रुटी हो याने जिस क्षेत्रमें खामी देखे उसमें खर्चदे । किन्तु अन्य किसीके भी नामसे कल्पित करके उस द्रव्यको घरमें न रख्खे । यहाँ पर कोई शंका करे कि धनादिका परिमाण (नियम) करनेसे क्या फायदा ? यदि बहुत सा द्रव्य पास होगा तो कभी काम पड़नेपर काम आयगा । इसके उत्तरमें समझना चाहिये कि इच्छाका अनुरोध करनेके लिये ही परिग्रह परिमाण किया जाता है । इच्छानुरोध, यह