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पाँचवाँ गुणस्थान.
(३१) भक्षण करें तो वह भी तीर्थकर अदत्त समझ लेना। जो वस्तु गुरु महाराजकी आज्ञा विना अंगीकार की जाती है, चाहे वह वस्तु निर्दोष ही हो, तथापि वह गुरु अदत्त कहा जाता है । पहला स्वामी अदत्त सूक्ष्म तथा बादर भेदसे दो प्रकारका है, जिसमें स्वामीकी आज्ञा विना याने मालिककी रजा सिवाय तृण वगैरह निर्माल्य वस्तुको भी जो अंगीकार करना है, उसे सूक्ष्म स्वामि अदत्त कहते हैं। मालिककी रजा विना जो बड़ी वस्तुको ग्रहण करना है, अर्थात् जिस वस्तुके आदानसे लोकमें अपकीर्ति हो
और राजाकी तर्फसे सजा मिले, उसे स्थूल या बादर स्वामिअदत्त कहते हैं । तथा चोरीकी बुद्धिसे किसीकी अल्प वस्तु भी जो ग्रहण की जाती है, वह भी स्थूल अदत्त ही कहा जाता है । इस प्रकार चार भेद सहित अदत्तादानमें पहले स्वामि अदत्तके दो भेद होते हैं। इस दोनों प्रकारके स्वामि अदत्तमेसे गृहस्थ श्रावकको सूक्ष्म स्वामि अदत्तमें तो यत्नपूर्वक बर्ताव करना चाहिये और स्थूल अदत्तादानका सर्वथा परित्याग करना चाहिये । सदाचारी गृहस्थ श्रावकको चाहिये कि वह चोरीकी दानतसे किसीकी वस्तु न तो खुद ग्रहण करे, ना ही दूसरेसे ग्रहण करावे और चोरीका आया हुआ माल या कोइ वस्तु मोलको भी ग्रहण न करे। इस तरहसे अदत्तादान (चोरी) का स्वरूप समझ कर गृहस्थीको स्थूल चोरीका परित्याग करना चाहिये ॥ .. ___ अब चतुर्थ स्वदारासंतोष नामक अणुव्रतका स्वरूप लिखते हैं-संतोषः स्वदारेषु, त्यागश्वापरयोषिताम् । गृहस्थानां प्रथयति, चतुर्थ तदणुव्रतम् ॥ १॥ अर्थ-अपनी विवाहित स्त्री पर संतोष रख कर परस्त्रीका परित्याग करना यह गृहस्थियोंका चतुर्थ अणुव्रत कहा जाता है । इस व्रतको अंगीकार करनेवाले पुरुषको अ.