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(३२) गुणस्थानकमारोह. पनी विवाहिता स्त्रीको वर्जकर दूसरी स्त्रियोंका सर्वथा त्याग करना चाहिये । अर्थात् अपनी स्त्रीसे जुदी जो देव-मनुष्य-तियेच संबन्धि, या अन्यपरिणीता, अन्यस्वीकृता, कुमारी, विधवा तथा वेश्या वगैरह सब ही स्त्रियोंका सर्वथा परित्याग करना चाहिये । यद्यपि अपरिग्रहिता देवांगना, वेश्या, कुमारी तथा तिर्यचकी स्त्रियाँ किसीकी ग्रहण की हुई नहीं हैं, तथापि वे परजातिके भोग्य होनेसे परस्त्री ही कही जाती हैं, इस लिये उन सबका ही त्याग करना चाहिये। दूसरे यह भी बात है कि स्वदारासंतोषीके लिये तो संसारकी तमाम स्त्री मात्र परस्त्री ही हो चुकीं; अतः उसके लिये तो उन सबका ही त्याग हो चुका । दार शब्दके उपलक्षणसे यहाँ पर इतना विशेष समझ लेना कि जिस प्रकार प्रथम पुरुषोंके लिये कहा गया है, उसी तरह स्त्रियोंको भी अपने स्वीकृत पति पर संतोष रख कर अन्य सभी पुरुषोंका त्याग-नियम करना चाहिये । मैथुन दो प्रकारका होता है, एक तो सूक्ष्म और दसरा स्थूल । कामके उदयसे इन्द्रियोंमें जो विकारभाव पैदा होता है, उसे सूक्ष्म कहते हैं और मन-वचन-कायासे औदारिक देह तथा वैक्रिय देहधारि स्त्रियों के साथ जो संभोग किया जाता है, उसे स्थूल मैथुन कहते हैं । देशविरतिधारी श्रावकको सूक्ष्म मैथुनमें यत्नपूर्वक बर्तन करना चाहिये और परस्त्रीसंबन्धि स्थूल मैथुनका सर्वथा परित्याग करना चाहिये । यह पूर्वोक्त प्रकारवाला चतुर्थ अणुव्रत समझना. .. पाँचवाँ अणुव्रत परिग्रह परिमाण नामक है । परिग्रहके अन्दर मनुष्यको अवश्य परिमाण करना चाहिये, अन्यथा उसकी लोभदशा सदैव बढ़ती है और उससे उसकी आत्मा बड़ी ही मलीन हो जाती है। इस विषेमें शास्त्रकार फरमाते हैं-परिग्रहाधिकं पाणी,