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पाँचवाँ गुणस्थान. कि श्री भगवती सूत्रमें श्रावकके लिये भी त्रिविधं त्रिविधेन, ऐसा पाठ आता है, अर्थात् गृहस्थके लिये भी त्रिविध त्रिविध प्रत्याख्यान करनेका फरमाया है, तो फिर यहाँ पर द्विविध त्रिविध कहनेकी क्या जरूर ? वैसा ही क्यों न किया जाय । इसके उत्तरमें समझना चाहिये कि उस तरह त्रिविध त्रिविध भंगका अविशेषपना है, याने पूर्वोक्त भंगका अल्प ठिकाने ही व्यापकपना है । वह यों समझना-जो गृहस्थ दीक्षा लेनेकी इच्छा रखता हो वह यदि स्थूल हिंसासे विरति धारण करे तो अवश्य त्रिविधं त्रिविधेन, पाठसे प्रत्याख्यान करे । किन्तु बहुलतासे द्विविध त्रिविधके भंगसे ही ग्रहण किया जाता है ।
पहले अणुव्रतके छ: भंग होते हैं, जिसमें प्रथम भंग तो कह ही दिया, अब आगेके पाँच ये हैं-द्विविध द्विविध, यह दूसरा भंग समझना, द्विविध एकविध, यह तीसरा भंग, एकविध त्रि. विध, यह चौथा भंग, एकविध द्विविध, यह पाँचवाँ भंग और एकविध एकविध, यह छठा भंग समझना । इस तरह पूर्वोक्त प्रकारसे पहले अणुव्रतके ये छः भंग होते हैं । इसी तरह दूसरे व्रतोंके भी समझलेने । पहले अणुव्रतके जो पूर्वोक्त छ: भंग बताये हैं, उन्हें सात गुणाकार करके उनमें छःऔर मिलानेसे अड़तालीस भंग होते हैं। इसी प्रकार आगेके व्रतों संबन्धि भी समझना, अर्थात् पहले व्रतसे लेकर बारहवें व्रत पर्यन्त इसी प्रकार समझ लेना, समुच्चय एक संयोगि, द्विसंयोगि तथा त्रिसंयोगि, एवं बारह ही व्रतोंके परस्पर संयोगि भंग करनेपर यदि सबकी संख्या की जाय तो तेरहसौ चौरासी करोड़, बारह लाख, सतासी हजार और दोसोकी होती है । ग्रंथ बड़ा होनेके भयसे यहाँ पर इस विषयको. सविस्तर नहीं लिखा है, यदि किसी पाठक महाशयकी इस विष