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गुणस्थानक्रमारोह.
व्याख्या-चतुर्थ गुणस्थानमें रहा हुआ अविरति सम्यग्दृष्टी जीव व्रत नियम रहित भी देव-गुरु-संघकी भक्ति तथा जिनशासनकी समुन्नति करता है, अर्थात् प्रभावक श्रावक होनेसे जिनशासनकी पूजा प्रभावनादि उन्नति करता है । तथा अविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें रहा हुआ जीव तीर्थकर नामकर्म, देव संबन्धि आयु तथा मनुष्य संबन्धि आयुका बन्ध होनसे ७७ सतत्तर कर्मप्रकृतियोंको बाँधता है। मिश्रमोहनीयका अनुदय होनेसे और सम्यक्त्वमोहनीय, तथा अनुपूर्वी चतुष्कका उदय होनेसे १०४ एकसौ चार प्रकृतियोंको वेदता है, तथा १३८ एकसौ अड़तीस कर्मप्रकृतियाँ सत्तामें रखता है।
उपशमश्रेणीवाला जीव चौथे गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त सर्वत्र एकसौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियाँ सत्तामें रखता है। क्षपकश्रेणीवाले जीव संबन्धि प्रकृतियोंकी सत्ता प्रति गुणस्थान आगे चलकर कथन करेंगे ।
॥ चौथा गुणस्थान समाप्त ॥
अब पाँचवें देशविरति गुणस्थानका स्वरूप कहते हैंप्रत्याख्यानोदयादेशविरतिर्यत्र जायते । तच्छ्राद्धत्वं हि देशोनपूर्वकोटिगुरुस्थितिः ॥२४॥
श्लोकार्थ-प्रत्याख्यानके उदयसे जहाँपर देशविरति होती है, वहाँ पर श्रावकपना होता है और उसकी देश ऊना पूर्वकोटी गुरुस्थिति होती है।
व्याख्या-पंचम गुणस्थानवर्ती जीवको सम्यक्त्वअवबोधजन्य वैराग्यसे सर्वविरति इच्छते हुए भी सर्वविरतिको