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दूसरा गुणस्थान.
स्थान तथा मिश्रादि गुणस्थानोंको उत्तरोत्तर आरोहणका कारणभूत होनेसे गुणस्थानपना सिद्ध हो सकता है, किन्तु पतनरूप जो दूसरा सास्वादन नामक गुणस्थान है, उसे गुणस्थानकत्व किस तरह सिद्ध हो सकता है ?, इसके उत्तरमें शास्त्रकार फरमाते हैं, कि मिथ्यात्वगुणस्थानकी अपेक्षा सास्वादन गुणस्थान भी उच्चारोहणपदवाला है, क्योंकि मिथ्यात्वगुणस्थान तो अभव्यजीवों में भी होता है, परन्तु सास्वादन गुणस्थान तो भव्यजीवोंको ही प्राप्त होता है। उसमेंभी उन्हीं भव्यजीवोंको सास्वादन गुणस्थान प्राप्त होता है जिनका अर्धपुद्गलपरावर्त शेष संसार रहा हो। कहा भी है कि अन्तमुहूतमात्रमपि स्पृष्टं भवेद्यः सम्यक्त्वम् । तेषामपापुद्गलपरावर्त एव संसारः ॥ १ ॥ अर्थात् अन्तर्मुहूर्त मात्रकाल पर्यन्त जिन जीवोंने सम्यक्त्वको स्पर्श कर लिया है, उनका अर्धपुद्गल परावर्त ही शेष संसार रहा है अधिक नहीं, उतने काल बाद वे जीव अवश्य मोक्ष पदको प्राप्त करतेहैं । इस लिए सास्वादन गुणस्थानको भी गुणस्थानकत्व सिद्ध होता है । सास्वादन गुणस्थानमें रहा हुआ जीव मिध्यात्व, नरकत्रिक (नरक गति १ नरकका आयु २ नरककी अनुपूर्वी ३) एक इन्द्रियादि जाति चतुष्क, (एक इन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रियतक ) स्थावर चतुष्क. (१ स्थावरनामकर्म, २ सूक्ष्मनाम कर्म ३ अपर्याप्तनामकर्म ४ साधारणनामकर्म) आतापनामकर्म, अन्तिम संस्थान, अन्तिम संघयण नपुंसकवेद। एवं इन सोलह कर्मप्रकतियोंके बन्धका अभाव होनेसे एकसौ एक कर्मप्रकृतियां बाँधता है। सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म, साधारणनामकर्म, आतापनामकर्म, मिथ्यात्वमोहनीय और · नरकानुपूर्वी, इन छ:मकतियोंके उदयका अभाव होनेसे एकसौ ग्यारह कर्मप्रकृतियोंको वेदता है । इस गुणस्थानमें एकसौअड़तालीस कर्म प्रकृतियों