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चौथा गुणस्थान.
मकृतियोंका ही बन्ध करता है । इस गुणस्थानमें चार अनन्तानु बन्धिकषाय, स्थावरनाम कर्म, एकेन्द्रियनाम कर्म, विकलेन्द्रियत्रिक (दीन्द्रिय त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय ) तथा मनुष्य और तिर्यंच संवन्धि अनुपूर्वी, इनपूर्वोक्त कर्मप्रकृतियोंका उदयभाव न होनेसे तथा मिश्रका उदय होनेसे १०० एकसौ कर्मप्रकृतियोंको वेदतारे
और इस गुणस्थानके स्वामीकी सत्ता १४७ एकसौ सैंतालीस कर्मप्रकृतियां रहती हैं।
॥ तीसरा गुणस्थान समाप्त ॥
अब चतुर्थ गुणस्थानका स्वरूप लिखते हैं। चतुर्थ गुणस्थानका स्वामी सम्यग्दृष्टी ही होता है. इस लिए सम्यक्त्व किस तरह प्राप्त होता है ? शास्त्रकार प्रथम इस बातको बताते हैं
यथोक्तेषु च तत्त्वेषु, रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाहा, सम्यक्त्वं हि तदुच्यते ॥१८॥
श्लोकार्थ-यथोक्त तत्वों में जीवकी स्वभावसे या उपदेशद्वारा मो रुचि होती है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं ।
व्याख्या-मनवाले भव्य पंचेन्दिय जीवको निसर्ग से, याने पूर्वभव जनितअभ्यास विशेष से प्राप्त की हुई जो आत्मनिर्मलता है, उसके स्वभावसे या सद्गुरुउपदिष्टशास्त्रश्रवणद्वारा सर्वदेवमणीत जीवाजीवादि तत्वोंके अन्दर जो रुचि-श्रद्धा होती है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं । शास्त्रमें कहा भी है-रुचिर्जिनोक्ततत्वेषु सम्यक् भद्धानमुच्यते । जायते तनिसर्गेण, गुरोरधिगमेन वा ॥ १ ॥ ___अर्थ-जिनेश्वर देवके कथन किये हुए तत्वों में जो रुचि होतो है उसे ही सम्यक् श्रद्धान कहते हैं और वह दो प्रकारसे