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( ४ ) गुणस्थानक्रमारोह. द्धि है उसे व्यक्त मिथ्यात्व कहते हैं और मोह लक्षणरूप अव्यक्तमिथ्यात्व होता है। . व्याख्या-संज्ञीपंचेन्द्रियजीवोंमें जो अदेव, अगुरु, अधर्मके अन्दर क्रमसे देव गुरु धर्मका विश्वास है उसे व्यक्तमिथ्यात्व कहते हैं । उपलक्षणसे यह भी समझ लेना कि जीवाजीवादि नव पदार्थों के विषयमें अश्रद्धा, अर्थात् विपरीत बुद्धि या उन पदार्थोंकी विपरीत प्ररूपणा, संशयकरणरूप जो मिथ्यात्व है, वह पांच प्रकारका होता है । १ अभिग्रहिक २ अनाभिग्रहिक ३ अभिनिवेशिक ४ सांशयिक और ५ अनाभोगिक । इस तरह पांच प्रकारका मिथ्यात्व होता है । तथा जो दश प्रकारका मिथ्यात्व कहा है वह इस तरह समझना-१ अधर्ममें धर्मसंज्ञा २ धर्ममें अधर्मसंज्ञा ३ उन्मार्गमें सन्मार्गसंज्ञा ४ सन्मागमें उन्मार्गसंज्ञा ५ जीवमें अजीवसंज्ञा ६ अजीवमें जीवसंज्ञा ७ असाधुओं में साधुसंज्ञा ८ साधुओं में असाधुसंज्ञा ९ अमूर्तपदार्थों में मूर्तसंज्ञा और १० मूर्तपदार्थों में अमूर्तसंज्ञा । यह दश प्रकारका मिथ्यात्व होता है ॥
मिथ्यात्वको गुणस्थान क्यों कहा ? इसका हेतु बताते हैं । अनाद्यव्यक्तमिथ्यात्वं, जीवेस्त्येव सदापरम् । · व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्ति-गुणस्थानतयोच्चते ॥७॥ - श्लोकार्थ-जीवमें अनादि अव्यक्तमिथ्यात्व है परन्तु व्यक्तमिथ्यावबुद्धिकी प्राप्तिको गुणस्थान कहते हैं । __ व्याख्या-अनादि कालसे अव्यवहारराशिमें सदैव अव्यक्तमिथ्यात्व रहता है तथा व्यवहारराशिमें भी एकेन्द्रियादि जीवों में अव्यक्तमिथ्यावही है । किन्तु व्यक्तमिथ्यात्व बुद्धिकी जो प्राप्ति होती है उसीको गुणस्थानतया कथन करते हैं । पूर्वमें जो पांच प्रकार तथा दश प्रकारका मिथ्यात्व बताया है । उसे व्यक्त