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प्रथम गुणस्थान.
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मक, दूसरा सास्वादनं नामक, तीसरा मिश्र नामा, चतुर्थ अव्रतसम्यग्दृष्टि, पंचम श्राद्धत्व, षष्ठम प्रमत्तश्रमण नामक,सप्तम अप्रमत्त नामा, अष्टम अपूर्वकरण नामा, नवम अनिवृत्ति नामा, दशम सूक्ष्मलोभ अथवा सूक्ष्मसंपराय, एकादश शान्तमोह नामा, द्वादशम क्षीणमोह नामक, त्रयोदश सयोगि और चतुर्दश अयोगि नामक गुणस्थान है।
व्याख्या-चतुर्दश गुणस्थानोंके नाम जो ऊपर कथन किये गये हैं उन्हीं गुणस्थानोंका स्वरूप क्रमसे आगे चलकर कथन किया जायगा । यों तो अनन्त गुणोंका स्थानभूत आत्मा है, क्योंकि उसमें समय समय परिणतिका परिवर्तन होता रहता है। उसमें भी दो प्रकार हैं, एक अशुभपरिणति और दूसरी शुभपरिणति । जिस अध्यवसायके द्वारा आत्माको आघात पहुँचता है उसे अशुभपरिणति कहते हैं और जिस अध्यवसायके द्वारा आत्मीय शुद्ध स्वभाव प्राप्त होवे उसे शुभ परिणति कहते हैं । बस इस परिणतिकाही नाम गुणस्थान है। जितनी देर आत्मा उस शुभपरिणतिमें 3हरे उतनी देर तक बह आत्माके लिए गुणका स्थान है । इस प्रकारके गुणोंके स्थान तो आत्माके अन्दर अनेकानेक भरे हुवे हैं तथापि जिन गुणस्थानोंको क्रमसे उत्तरोत्तर प्राप्त करके आत्मा सिद्धिगतिको प्राप्त करती है वे गुणस्थान शास्त्रकारोंने चतुर्दश फरमाये हैं, इस लिए उन चतुर्दशही गुणस्थानोंका यहाँपर स्वरूप कथन किया जाता है ।
अब प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थानका स्वरूप लिखते हैं । अदेवाणुर्वधर्मेषु, या देवगुरुधर्मधीः । तन्मिथ्यात्वं भवेव्यक्तमव्यक्तं मोहलक्षणम् ॥६॥ श्लोकार्थ-अदेव, अगुरु, अधर्ममें जो देव, गुरु, धर्मकी बु