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॥ ॐकाराय नमः ॥
॥ गुणस्थानकमारोह ||
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गुणस्थानकमारोह, - हतमोहं जिनेश्वरम् । नमस्कृत्य गुणस्थानस्वरूपं किञ्चिदुच्यते ॥
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श्लोकार्थ – गुणस्थानके क्रमसे आरोहणद्वारा नष्ट किया है मोहको जिसने ऐसे जिनेश्वरदेवको नमस्कार करके गुणस्थानोंका किंचिन्मात्र स्वरूप कथन करते हैं ।
व्याख्या - जो गुण पूर्वकालमें कभी न प्राप्त हुआ हो उस गुणका जो आविर्भाव है उसे गुण कहते हैं और उस गुणकी स्थिति जिस परिणतिमें हो उसे गुणस्थान कहते हैं । जिन गुणस्थानोंको क्रमसे प्राप्त करता हुआ जीव संसारसे मुक्त होता है, वे गुणोंके स्थान शास्त्रकारों ने चौदह फरमाये हैं, उन्हीं चतुर्दशगुणस्थानों का यहाँपर संक्षेपसे स्वरूप कथन कियाजाता है । प्रथमसे लेकर अन्ततक जो गुणस्थानोंका क्रम है उस क्रमसे क्षपकश्रेणीको प्राप्त करके मोहनीयकर्मको नष्ट करनेवाले, क्योंकि क्षपकश्रेणीको आरोहण करनेसेही मोहनीयकर्म नष्ट होता है अन्यथा नहीं, शास्त्रमें फरमाया है कि अनन्तानुबन्धिकषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यत्वमोहनीय बाद अष्ट कषायोंको नष्ट करता है ( जिनका स्वरूप हम आगे लिखेंगे) बाद क्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क ( हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा ) पुरुषवेद तथा संज्वलनके चारों कषाय, इन पूर्वोक्त मोहनीयकर्मका प्रकृतियोंको सत्तासे नष्ट करनेपर वीतरागपनेको प्राप्त करता है । साथमें इत