Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गांधी दर्शन
साधन अपने स्वरूप से साध्य को सीमित करते हैं। यह एक दार्शनिक सिद्धान्त बन जाता है। राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में तो गांधी जी के नेतृत्व में यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ ही। अब देखना यह है कि क्या अन्य क्षेत्रों में भी यह यथावत चरितार्थ होता है। उदाहरण के लिए ज्ञान का क्षेत्र लीजिए--'यूक्लिड ने ज्यामिति का एक सिद्धान्त बनाया था कि त्रिभुज के तीन कोणों का जोड़ १८० डिग्री होता है' और यह सिद्धान्त उन्होंने अनगिनत त्रिभुजों को देखकर बनाया होगा। किन्तु आगे चल कर यह सिद्धान्त ऐकान्तिक रूप में असिद्ध हो गया। और दूसरे मनीषियों ने देखा कि युक्लिड का सिद्धान्त केवल सीधे धरातल पर लागू होता है यदि गोल वस्तु पर त्रिभुज बनाया जाय तो उसके कोणों का योग १८० डिग्री से अधिक हो जायेगा। तो ऐसा तो नहीं हुआ कि युक्लिड का सिद्धान्त नितान्त मिथ्या सिद्ध हो गया, केवल उसकी सीमा निर्धारित हो गयी। और वह सीधे धरातल तक सीमित हो गया। विज्ञान के विकास में हम यही देखते हैं कि किसी मनीषी ने अपनी प्रतिभा और अतदृष्टि से यदि किसी सत्य का अन्तर्दर्शन किया तो प्रगति के प्रवाह में आगे आने वाले मनीषी भी .उसे सर्वथा असत्य नहीं सिद्ध नहीं कर सके, केवल सीमित सत्य की कोटि में उसे पहुँचा दिया । और ज्ञान का प्रवाह उत्तरोत्तर इसी प्रकार सम्पन्नतर और शुद्धतर होता गया। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यूक्लिड के सत्य की सीमा उसके साधनों के कारण निर्दिष्ट हुई क्योंकि उसने गोल धरातल पर त्रिभुज बनाकर नहीं देखा था। इसीलिए यह कहना पड़ता है कि यदि मनुष्य अल्पज्ञ न होता और ऐतिहासिक अनुभव कालसीमित न होता तो हर साधन अपने साध्य को पूर्णतः सिद्ध कर लेता। यही कारण है कि साध्य की सीमा का अनुभव होने पर पलट कर अपने साधनों की जांच करनी पड़ती है। और साध्य के द्वारा ही इंगित होने वाली सीमा को देखते हुए साधन की त्रुटि को पूर्ण करते हुए पूर्णतर साध्यों की ओर अग्रसर होना होता है।
मानव जीवन में कुछ आदर्श और मूल्य होते हैं। इसीलिए उसमें शुद्ध और अशुद्ध, उचित ओर अनुचित आदि मूल्यात्मक प्रत्ययों का प्रयोग होता है । ज्ञान के क्षेत्र में मूल्य निरपेक्षता ही मूल्य मानी जाती है, केवल सत्य और असत्य, वस्तुनिष्ठ और बुद्धयपेक्ष्य आदि प्रत्ययों का प्रयोग होता है और वस्तुनिष्ठ सत्य' पर पहुंचना ही आदर्श माना जाता है । जिस साधन से जितनी मात्रा में वस्तुनिष्ठ सत्य की उपलब्धि होती है वही साधन उतनी ही मात्रा में शुद्ध माना जाता है। गांधी जी स्वयं अपनी अहिंसा को पूर्ण नहीं मानते थे, बीच बीच में अपने तात्कालिक उद्देश्यों की विफलता के अवसर पर कहते थे कि यदि मेरी अहिंसा पूर्ण होती तो ऐसा न होता। इस प्रकार प्राप्त साध्यों की मात्रा को देखते हुए साधनों की मात्रा निर्धारित होती है और उनकी
परिसंवाद-३
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