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भगवती सूत्र--शतक १ परिचय
किया जाता है । जिनधर्म अनादि काल से चला आ रहा है । इसमें श्रुतज्ञान का योग ही विशेष रूप से उपकारी रहा है। इसीलिए यहाँ पञ्च परमेष्ठी के साथ साथ जिनवाणी रूप श्रुतज्ञान को अर्थात् श्रुतज्ञान के धारक मुनियों को भी नमस्कार किया है। श्रुतज्ञान की आराधना की परम्परा निर्बाध रूप से चलती रहे, यह भावना इसके मूल में रही
प्रथम शतक-उद्देशक परिचय
रायगिह चलण दुक्खे, कंखपओसे य पगइ पुढवीओ। जावंते गैरइए, बाले गुरुए य चलणाओ॥
शब्दार्थ-रायगिह चलण-राजगृह नगर में चलन, दुक्खे-दुःख । कंखपओसे-कांक्षाप्रदोष । पगइ-प्रकृति । पुढवीओ-पृथ्वियों । जावंते-यावन्त-जितने । गेरइए-नैरयिक । बाले-बाल । गुरुए -गुरुक। य-और चलणाओ-चलनादि ।
भावार्थ-इस संग्रह गाथा में प्रथम शतक में आये हुए विषयों की सूची दी गई है। प्रथम शतक में दस उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक का प्रारम्भ उपरोक्त .गाथा में कहे हुए शब्दों से हुआ है। अर्थात् प्रथम उद्देशक का प्रारम्भ 'चलमाणे चलिए' से हुआ है। दूसरे उद्देशक में 'दुःख' विषयक प्रश्न है। इसी प्रकार आगे के उद्देशकों में क्रमशः कांक्षामोहनीयादि विषयक पृच्छा की गई है। .
किये गये उस समय यह आदिमंगल रूप मंगलाचरण जुड़ गया हो । अत: उसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार भावलिपि ही होना चाहिए, क्योंकि गणधर भगवान् स्वयं श्रुतकेवली थे । अत: उन्हें श्रुत को नमस्कार करने की क्या बावश्यकता थी? दूसरी बात यह है कि श्रुत प्रवर्तन में उन्होंने लिपि का सहारा लिया ही नहीं था, फिर उन्हें लिपि और लिपिदाता को नमस्कार करने की आवश्यकता ही क्या थी?
कितनीक. प्रतियों में 'णमो सुयस्स' यह पद नहीं है । संग्रह गाथा को देखते हुए भी ऐसा ही प्रतीत होता है कि भगक्ती सूत्र का प्रारम्भ 'राजगृह नगर' इस पद से हुआ है, जैसा कि संग्रह गाथा में कहा गया है 'रायगिह चलण दुक्खे' इत्यादि । तथा आगे कहा है-'सेणं कालेणं तेणं समएर्ण रायगिहे गामं गयरे होत्या' इत्यादि।
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