Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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आचारांग एवं कल्पसूत्र में वर्णित महावीर-चरित्रों का विश्लेषण एवं उनकी पूर्वापरता का प्रश्न
३
(२) क० सू०२
आचा० ७३४ के क्रम में बहुत अन्तर है। (३) क० सू० ३
आचा० ७३४ चइस्सामि ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, चुए मि त्ति जाणइ । (४) क० सू० ९३ जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे आचा० ७३६ ७ ८ ९
११
१२ १३ चित्तसुद्धे तस्स णं चित्त सुद्धस्स तेरसीदिवसेणं तेरसीपक्खेणं
१८ (तेरसीपक्खणं) नवण्ठं
नवण्हं मासाणं पडिपुन्नाणं अघट्ठमाण य राइंदियाणं विइक्कताणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि हत्थुत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जोगोवगतेणं
२१ आरोगा आरोगं (अरोगा अरोग) दारयं
२२ २३ पयाया (पसूया)।
नाणं
१९
२०
२४
(५) क० सू० १२० के क्रम में काफी अन्तर है।
आचा० ७७२ १. (ग) भाषा सम्बन्धी तुलना
जो जो प्रकरण दोनों ग्रन्थों में समान रूप से मिलते हैं उनकी भाषा का अध्ययन करने पर दोनों की भाषा में प्राचीनता-अर्वाचीनता का भेद नजर नहीं आता है।
प्रथमा एक० व० के लिए 'ए' विभक्ति, सप्तमी ए० व० के लिए 'ए और अंसि', भविष्यकाल के लिए 'स्स' विकरण, 'भू' धातु के 'भव' एवं 'हो' रूप एवं संबंधक भूत कृदन्त के लिए प्रयुक्त 'त्ता, च्चा, टु' प्रत्ययों के अनुपात में कोई खास अन्तर मालूम नहीं होता है अतः दोनों ग्रंथों के मूल पाठ की रचना सामान्यतः एक समान लगती है। ध्वनि परिवर्तन एवं प्रत्ययों की दृष्टि से कुछ रूप आचारांग में तो कुछ रूप कल्पसूत्र में प्राचीन मालूम होते हैं। प्राचीन रूप
अर्वाचीन रूप (आचारांग)
(कल्पसूत्र) गोत्तस्स (७३४)
गुत्तस्स (३) असुभाणं, सुभाणं (७३५)
असुहे, सुहे (२७) चेत्तसुद्धे (७३६)
चित्तसुद्धे (९३) नामधेज्जा (७४४)
नामधिज्जा (१०४, १०८) दातारेसु (७४६)
दायारेहिं (१११)
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