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आप्तवाणी-६
करते हैं और मूर्ति फल देती रहती है, वैसे ही ये प्रतिष्ठा करता है, उसके फलस्वरूप बच्चे पढ़ते- करते हैं, पहले नंबर से पास भी होते हैं।
बुद्धि का आशय प्रश्नकर्ता : इसमें खुद का कोई पुरुषार्थ नहीं है?
दादाश्री : नहीं, वह तो खुद प्रतिष्ठा करता जाता है और मूर्ति बनती जाती है और फिर, उसकी बुद्धि के आशय में हो, उस अनुसार उसका ‘फिटिंग' होता जाता है। बुद्धि के आशय में क्या है? तब कहे कि, मुझे तो बस पढ़ाई में ही आगे बढ़ना है, यदि ऐसा बुद्धि का आशय हो तो वैसा ही फल देगा। यदि किसी को ऐसा हो कि, मुझे भक्ति में आगे बढ़ना है, तो वैसा फल आएगा।
यदि बुद्धि के आशय में ऐसा हो कि 'मुझे झोंपड़ी में ही रास आएगा', तो फिर करोड़ रुपये हों, फिर भी उसे झोंपड़ी के बगैर अच्छा नहीं लगेगा और किसी के बुद्धि के आशय में, 'मुझे बंगले के बिना अच्छा नहीं लगेगा', ऐसा हो, तो उस पर यदि पाँच करोड़ रुपये का उधार हो, फिर भी बंगले में ही रहना अच्छा लगेगा । और इस भक्त बेचारे को क्या होता है कि, मुझे तो जैसा हो वैसा चलेगा। तब उसे जैसा हो वैसा, लेकिन सबकुछ मिल जाता है !
प्रश्नकर्ता : यानी वहाँ भाव काम करते हैं?
दादाश्री : नहीं, वह बुद्धि का आशय है, भाव नहीं करना पड़ता । बुद्धि के आशय के अनुसार ही भीतर सबकुछ सेटलमेन्ट हो चुका होता है। खुद प्रतिष्ठा करके पुतला तैयार करता है और फिर बुद्धि के आशय के अनुसार सेटलमेन्ट होता है।
प्रश्नकर्ता: बंगले के बगैर अच्छा नहीं लगेगा, उसे बुद्धि का आशय कहा, तो इसमें फिर प्रतिष्ठा कौन सी?
दादाश्री : प्रतिष्ठा तो आप अपने आप करते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ, यह मैंने किया, इसका ससुर हूँ, इसका मामा हूँ' ऐसा करके पुतला