________________
आप्तवाणी-६
५५
दादाश्री : उसे भी 'हमें' देखना है! लाइट का काम क्या है? 'देखना'। उसमें पहाड़ी आए, कीचड़ आए, पानी आए, गंध आए तो गंध, झाडियाँ आए तो झाडियों में से भी घुसकर निकल जाती है। परंतु उसे झाड़ी लगती नहीं है। यह लाइट यदि ऐसी है, तो वह लाइट कितनी अच्छी होगी!
आप अंधेरे में ड्राइविंग करो तो आपको पता नहीं चलता कि कितने जीव-जंतु (जीवाणु) कुचले जाते हैं। लाइट लगाओ तो तुरंत पता चलता है कि इतने सारे जीव-जंतु टकरा रहे हैं! अरे, ये तो लाइट के कारण दिखा। तो क्या पहले नहीं टकरा रहे थे? टकरा ही रहे थे। वे फ़ॉरेनर्स को नहीं दिखते
और हमें लाइट है इसलिए दिखते हैं। हमें दिखते हैं, इसीलिए हम उपाधि में होते हैं और उन्हें उपाधि नहीं होती। इस तरह यह जगत् चलता है!
प्रश्नकर्ता : परंतु उपाधि में तो आना ही पड़ता है न सभी को?
दादाश्री : उपाधि में आएँ हैं इसलिए हम निपाधि का रास्ता ढूँढ निकालते हैं। लेकिन जो उपाधि में आया ही नहीं, वह निउँपाधि का रास्ता किस तरह ढूँढ़ेगा? उसे तो अभी उपाधि में आना बाकी है।
एक ही बार बात को समझना है। यह बाहर की लाइट किसी को छूती नहीं और इस लाइट की वजह से जीवजंतु टकराते हुए दिखते हैं, नहीं तो कुछ भी नहीं दिख रहा था। यानी समझ लेने के बाद कोई चिंता नहीं और उपाधि भी नहीं! लेकिन 'हम' 'जान लें' कि लाइट हुई, इस वजह से दिख रहा है कि ये जीवजंतु कुचले जा रहे हैं। इनमें से किसी चीज़ के 'हम' कर्ता नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में किसी भाग में नैमित्तिक कर्तापन आता है। उसमें हम जब अधिक तन्मयाकार हो जाते हैं, तब अधिक रिएक्शन आते हैं।
दादाश्री : उसे भी 'हमें' देखना है। नहीं देखो तो कोई बदलाव होगा नहीं। हमें काम करते जाना है। सुबह पहले चाय पीते हो या नहीं पीते? उसमें कहीं 'करते रहना' ऐसा कहने की ज़रूरत पड़ती है? फिर भी ऐसा नहीं बोलना चाहिए कि 'काम मत करना, ऐसे ही चलता रहेगा।' ऐसा बोलना, वह गुनाह है। हमें तो 'काम करते जाओ' ऐसे कहना है।