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आप्तवाणी-६
जाती है, परंतु अब खुद का स्वयंसुख उत्पन्न हुआ है, अब आपको अन्य किसी सुख के अवलंबन की ज़रूरत नहीं है। इसलिए उन सुखों को एक
ओर रख देना। यह सुख और वह सुख दोनों एक साथ उत्पन्न नहीं होते। इसलिए अटकण को ढूंढ निकालो।।
अनुभव, लक्ष्य और प्रतीति तो सभी को रहती है। वह पुरुषार्थ का फल नहीं है। वह तो 'दादाई' कृपा का फल है। अब पुरुषार्थ और पराक्रम कब कहलाएगा? जिससे आप लटके हो वह लटकानेवाली डोरी टूट जाए तब! अब, पराक्रम आपको करना है। यह तो आपको जो प्राप्त हो गया है, वह आपके पुण्य के आधार पर ज्ञानी की कृपा प्राप्त हुई और कृपा के आधार पर यह प्राप्त हुआ है!
आपकी यह अटकण छूटे तो आपकी बात सभी को इतनी पसंद आएगी! बात गलत नहीं होती, बातें क्यों अच्छी नहीं निकलती, तो कहें 'अटकण के कारण!' अटकण से वाणी में खिंचाव रहता है! अटकण से मुक्त हास्य भी उत्पन्न नहीं होता। अटकण के खत्म होने के बाद वाणी अच्छी निकलेगी, हास्य अच्छा निकलेगा। इसलिए सभी अटकण निकालकर जगत् का कल्याण करो!
ये तीन चीजें मनोहर हो जानी चाहिए - वाणी, वर्तन और विनय। ये तीन चीजें अपने में मनोहर उत्पन्न हई, यानी कि सामनेवाले के मन का हरण करे वैसे हो गए तो समझना कि 'दादा' जैसे होने लगे हैं। फिर परेशानी नहीं है। फिर सेफसाइड है ! यानी कि यह वाणी, वर्तन और विनय, ये प्रत्यक्ष लक्षण दिखने चाहिए। लक्षण के बिना तो सच्ची वस्तु पहचान नहीं पाते न?
अटकण का अंत लाओ नाश्ता-वाश्ता करो, वह तो करना ही होता है। नाश्ते के लिए 'दादा' ने आपत्ति नहीं उठाई। परंतु किस आधार पर लटके थे, उस अटकण का पता लगाओ और अभी भी वह तार हो तो मुझे कहो और नहीं कहा जा सके ऐसा हो तो आप उसे ढूँढकर उसके पीछे पराक्रम करोगे तो भी