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आप्तवाणी-६
अटकण को छेदनेवाला - पराक्रम भाव प्रश्नकर्ता : अटकण को तोड़ने के लिए उसके पीछे पड़े तो ज़बरदस्त पराक्रमभाव उत्पन्न हो जाएगा न?
दादाश्री : वह पराक्रम होगा, तभी अटकण के पीछे पड़ा जा सकेगा। अटकण के पीछे पड़ते हैं, वही पराक्रम कहलाता है। पराक्रम के बिना अटकण टूट सके, ऐसा नहीं है। यह 'पराक्रमी पुरुष' का काम है। यह आपको ज्ञान दिया है, तो पराक्रम हो सकता है!
निकाचित तो भोगना ही पड़ेगा। उसमें कुछ चल सके, ऐसा नहीं है। परंतु उसमें दूसरा तूफ़ान खड़ा नहीं होगा, क्योंकि उसमें खुद की इच्छा जैसा कुछ नहीं रहता। आम मिला तो खा लेगा, नहीं मिला तो कोई बात नहीं। आम भोगना ही पड़ता है, खाना ही पड़ता है। भोगना नहीं है फिर भी भोगना पड़ता है, क्योंकि वह पुद्गल स्पर्शना है, उसमें किसी का कुछ चलता नहीं। परंतु अटकण में तो अंदर छुपी-छुपी भी, लेकिन इच्छा रही हुई है! इसलिए इस काल में इन 'ज्ञानीपुरुष' की हाज़िरी में रहकर, खुद की जो अटकण हो उसे जड़मूल से उखाड़कर एक ओर रख देना। और उसे एक ओर रखा जा सके, ऐसा है। इन 'ज्ञानीपुरुष' की हाज़िरी से सभी रोग मिट जाते हैं! तमाम रोगों को मिटाए, वह 'ज्ञानीपुरुष' की हाज़िरी! आपको अटकण प्रिय है क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं, अटकण का पता चलने के बाद तो (आँख में) कण की तरह चुभेगी। फिर कहाँ से वह प्रिय होगी?
दादाश्री : हाँ, चुभेगी! उसे 'मायाशल्य' कहते हैं!
प्रश्नकर्ता : एक तरफ अटकण चल रही होती है और उसका ख्याल रहता है, दूसरी तरफ एक मन को अच्छा लगता है और एक मन को अच्छा नहीं लगता, ऐसा सब साथ में होता है।
दादाश्री : हाँ, परंतु अटकण यानी अटकण। उसे उखाड़कर एक ओर रख देना। फिर से बीज के रूप में उगे नहीं, इस तरह उसकी मुख्य जड़ निकाल देनी पड़ेगी और पराक्रम से वह हो सकेगा, ऐसा है!